बीमा पर टैक्स हटाने का फैसला: राहत, संशय और जिम्मेदारी
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
बीमा पर टैक्स हटाने का फैसला: राहत, संशय और जिम्मेदारी
👉 विधिक परिप्रेक्ष्य
भारत का कर ढाँचा संविधान के अनुच्छेद 246 और 265 पर आधारित है। अनुच्छेद 265 स्पष्ट करता है कि “कोई भी कर विधि के बिना नहीं लगाया जाएगा।” जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) एक संवैधानिक संशोधन (101वाँ संशोधन, 2016) के तहत लागू हुआ था। बीमा सेवा पर 18% कर लगाया जाना इसी ढाँचे का हिस्सा था। अब सरकार का यह कदम—बीमा प्रीमियम पर से टैक्स पूरी तरह हटाना—संवैधानिक रूप से वैध है, लेकिन इसके साथ ही यह सवाल उठता है कि क्या यह निर्णय कर न्याय (Tax Justice) के सिद्धांत के अनुरूप है।
कानून का उद्देश्य केवल राजस्व जुटाना नहीं, बल्कि नागरिकों को राहत और समान अवसर देना भी है। बीमा जीवन और स्वास्थ्य से जुड़ा है, जिसे भारतीय न्यायालयों ने “जीवन के अधिकार” (अनुच्छेद 21) के दायरे में माना है। ऐसे में बीमा पर भारी टैक्स लगाना कहीं न कहीं नागरिक के मौलिक अधिकार को बाधित करता था। टैक्स हटाना इसलिए विधिक दृष्टि से स्वागत योग्य है।
👉 संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय संविधान “सामाजिक न्याय” और “कल्याणकारी राज्य” के आदर्शों पर आधारित है (प्रस्तावना और अनुच्छेद 38)। बीमा का सीधा संबंध नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा से है। ऐसे में सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह बीमा को बोझ नहीं बल्कि सहारा बनाए।
परंतु यदि बीमा कंपनियां प्रीमियम बढ़ाकर इस राहत को नकार देती हैं, तो संविधान के मूल उद्देश्य—समान अवसर और सामाजिक न्याय—को ठेस पहुँचती है। सरकार को चाहिए कि वह संवैधानिक दायित्व निभाते हुए उपभोक्ता संरक्षण कानूनों और नियामक संस्थाओं के माध्यम से यह सुनिश्चित करे कि नागरिकों को वास्तविक लाभ मिले।
👉 आर्थिक परिप्रेक्ष्य
आर्थिक दृष्टि से यह निर्णय दोहरी तस्वीर पेश करता है।
सकारात्मक पक्ष: टैक्स हटने से बीमा लेने की प्रवृत्ति बढ़ सकती है, जिससे लंबी अवधि में वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) मजबूत होगा।
नकारात्मक पक्ष: बीमा कंपनियां अब इनपुट टैक्स क्रेडिट का लाभ नहीं ले पाएंगी। विज्ञापन, कमीशन, तकनीकी सेवाएं और अन्य परिचालन खर्चों पर लगाया गया टैक्स उनकी लागत बढ़ाएगा। इसका सीधा असर उपभोक्ताओं पर पड़ेगा क्योंकि कंपनियां प्रीमियम में वृद्धि कर सकती हैं।
यहाँ सरकार और नियामक की भूमिका निर्णायक होगी—क्या वे कंपनियों को इस लागत का भार उपभोक्ताओं पर डालने से रोक पाएंगे या नहीं।
👉 सामाजिक परिप्रेक्ष्य
भारत में अब भी बड़ी आबादी बीमा से बाहर है। ग्रामीण और निम्न-मध्यम वर्ग में बीमा लेने की प्रवृत्ति बेहद कम है। कारण है—प्रीमियम की ऊँची लागत और भरोसे की कमी।
टैक्स हटाने का निर्णय अगर ईमानदारी से लागू होता है तो यह गरीब और मध्यम वर्ग के लिए बीमा को सस्ता और सुलभ बना सकता है। लेकिन यदि कंपनियां अपनी मनमानी से कीमतें बढ़ा देती हैं, तो यह वर्ग फिर से बीमा से दूर हो जाएगा। नतीजा होगा—समाज में असमानता और आर्थिक जोखिम का और गहरा होना।
सरकार ने टैक्स हटाकर एक सकारात्मक संवैधानिक संकेत दिया है कि नागरिकों की जीवन-सुरक्षा पर बोझ नहीं डाला जाएगा। लेकिन असली कसौटी अब है—
1. विधिक ढाँचे में सख़्त नियमन, ताकि उपभोक्ता के अधिकार सुरक्षित रहें।
2. संवैधानिक आदर्शों की रक्षा, ताकि सामाजिक न्याय केवल कागज़ी न रहे।
3. आर्थिक प्रबंधन, जिससे बीमा कंपनियां लागत संतुलन खोजें, न कि मुनाफाखोरी।
4. सामाजिक जिम्मेदारी, ताकि गरीब और मध्यम वर्ग वास्तविक राहत अनुभव करें।
बीमा पर टैक्स हटाने का फैसला तभी ऐतिहासिक साबित होगा जब यह “सतही राहत” न रहकर वास्तव में जन-कल्याणकारी बदलाव का रूप ले। वरना यह केवल सुर्खियों का शोर और राजनीतिक संदेश तक सीमित रह जाएगा।