लोकतंत्र या लाठीतंत्र?
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
लोकतंत्र या लाठीतंत्र?
विपक्षी आवाज़ों पर अंकुश का सिलसिला
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुरुवार को वाराणसी में मॉरिशस के प्रधानमंत्री नवीनचंद्र रामगुलाम के साथ गंगा आरती कर रहे थे, लेकिन ठीक उसी समय देश के कई हिस्सों में लोकतंत्र की आत्मा कराह रही थी। विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार असहमति की आवाज़ को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है, और बीते कुछ दिनों में कम से कम पाँच राज्यों से आए घटनाक्रम इन आरोपों को और पुष्ट करते हैं।
उत्तरप्रदेश में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अजय राय को प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले ही नज़रबंद कर देना सत्ता के असुरक्षा भाव की गवाही देता है।
जम्मू-कश्मीर में AAP विधायक मेहराज मलिक की गिरफ्तारी और फिर सांसद संजय सिंह व फारुख अब्दुल्ला तक को मिलने से रोक देना इस “लोकतंत्र” की तस्वीर को और धुंधला कर देता है। विरोध के बजाय अघोषित कर्फ़्यू और पुलिसिया अंकुश लागू किया गया।
लद्दाख में सोनम वांग्चुक का अनशन सरकार की वादाखिलाफी की याद दिला रहा है, जहाँ भाजपा ने चुनावी वादे तो किए थे पर छठी अनुसूची का दर्जा अब तक अधर में है।
असम में अनुसूचित जनजाति का दर्जा और स्वायत्तता की मांग पूरी न होने पर सड़कों पर उतरे समुदायों पर लाठीचार्ज लोकतांत्रिक संवेदनशीलता की जगह दमनकारी सोच का प्रतीक है।
बिहार में भू-सर्वेक्षण संविदाकर्मियों पर पुलिस की बर्बरता ने आक्रोश को और भड़काया है।
इन घटनाओं का समुच्चय बताता है कि लोकतांत्रिक असहमति को सरकार “आंतरिक खतरे” की तरह देख रही है। विपक्ष की आवाज़ को रोकना, वादाखिलाफी पर पर्दा डालना और पुलिसिया ताक़त से असहमति को कुचलना लोकतंत्र की नहीं, बल्कि लाठीतंत्र की पहचान है।
इतिहास गवाह है कि जब जनता की आवाज़ को दबाया जाता है, तो वह और बुलंद होकर लौटती है। आज मीडिया इस आक्रोश को भले न दिखा रहा हो, पर सत्ता को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र का सौंदर्य “सहमति” से नहीं, बल्कि असहमति को सम्मान देने से बनता है।