वेतन आयोग की घड़ी और सरकार की दोगली नीतियाँ
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
वेतन आयोग की घड़ी और सरकार की दोगली नीतियाँ
"कर्मचारी और पेंशनभोगी सरकार की रीढ़ हैं, पर नीतियों के दोहरेपन ने उन्हें बोझ समझकर हाशिए पर धकेल दिया है।"
केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनभोगियों के लिए राहत की खबर आई है कि 8वाँ वेतन आयोग शीघ्र गठित होगा और ओल्ड पेंशन स्कीम (OPS) पर भी चर्चा आगे बढ़ेगी। लेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी खड़े होते हैं—क्या यह केवल एक राजनीतिक घोषणा है या वास्तव में कर्मचारियों की दशकों पुरानी समस्याओं का समाधान?
आर्थिक परिप्रेक्ष्य
भारत में करीब 50 लाख केंद्रीय कर्मचारी और 60 लाख से अधिक पेंशनभोगी हैं। वेतन आयोग के लागू होने से राजकोष पर प्रत्यक्ष बोझ बढ़ता है। 7वें वेतन आयोग के लागू होने से लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपये का वार्षिक अतिरिक्त खर्च हुआ था। 8वाँ आयोग भी इसी पैमाने पर सरकारी खजाने पर असर डालेगा।
लेकिन यही खर्च अर्थव्यवस्था के मांग पक्ष को मजबूत करता है। जब कर्मचारियों की आय बढ़ती है तो उपभोग बढ़ता है, बाज़ार में मांग पैदा होती है और आर्थिक गतिविधियाँ तेज होती हैं। इसलिए वेतन आयोग केवल "खर्च" नहीं, बल्कि एक "निवेश" है जो विकास को गति देता है।
संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
संविधान का अनुच्छेद 43 राज्य को "जीवनयापन की पर्याप्त मज़दूरी" सुनिश्चित करने की दिशा में नीति निर्देश देता है। कर्मचारियों के वेतन, पेंशन और भत्तों का नियमित पुनरीक्षण इसी संवैधानिक भावना का हिस्सा है। लेकिन विरोधाभास यह है कि सरकार एक ओर न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा की बातें करती है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (NPS) जैसी बाज़ार आधारित व्यवस्था लागू कर कर्मचारियों को असुरक्षा के घेरे में डाल देती है।
OPS बहाली की माँग इसी असुरक्षा से उपजी है, क्योंकि NPS बाज़ार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर है जबकि OPS आजीवन सामाजिक सुरक्षा की गारंटी देता है।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य
कर्मचारी केवल वेतन पाने वाले वर्ग नहीं हैं; वे समाज की रीढ़ हैं। शिक्षक, सैनिक, पुलिसकर्मी, डाक कर्मचारी, रेलवे कर्मी—यही वे लोग हैं जो देश की प्रशासनिक और सेवा प्रणाली को जीवित रखते हैं। अगर यही वर्ग असंतोष और असुरक्षा से ग्रसित होगा, तो इसका सीधा असर जनसामान्य तक पहुँचेगा।
कोविड-19 काल में 18 महीने का डीए रोका जाना इसी असंतोष का बड़ा कारण बना। सरकार ने तब राजकोषीय संकट का हवाला दिया, लेकिन दूसरी ओर कॉर्पोरेट करों में छूट और बड़े पैमाने पर निजी कंपनियों को राहत दी। यही दोहरी नीति कर्मचारियों की नाराज़गी की जड़ है।
राजनीतिक संकेत
यह कोई संयोग नहीं कि 8वाँ वेतन आयोग और OPS बहाली पर चर्चा उस समय तेज़ हुई है जब कर्मचारी संगठनों का दबाव बढ़ा और चुनावी माहौल बन रहा है। कर्मचारियों का यह विशाल वर्ग कई राज्यों और केंद्र में चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
1. वेतन आयोग से लाभान्वित कर्मचारी और पेंशनभोगी
6ठे से 8वें वेतन आयोग तक लाभार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
2. राजकोषीय बोझ
6ठे वेतन आयोग से लगभग 0.74 लाख करोड़ रुपये, 7वें से 1.76 लाख करोड़ रुपये, और 8वें से संभावित रूप से 2.5 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त वार्षिक खर्च अनुमानित है।
👉 इससे साफ़ है कि कर्मचारियों की संख्या और राजकोषीय दबाव दोनों बढ़े हैं, लेकिन साथ ही अर्थव्यवस्था में खपत और मांग भी इसी अनुपात में मजबूत होती रही है।
सरकार को यह समझना होगा कि वेतन आयोग की घोषणा या OPS बहाली का वादा केवल राजनीतिक प्रबंधन का औज़ार नहीं होना चाहिए। यह कर्मचारियों की *आर्थिक सुरक्षा, संवैधानिक अधिकार और सामाजिक स्थिरता* से जुड़ा विषय है। यदि सरकार ने वास्तविक नीयत से यह कदम नहीं उठाए, तो यह "वेतन आयोग" भी केवल चुनावी प्रलोभन बनकर जाएगा।
"सरकार को यह तय करना होगा—कर्मचारी बोझ हैं या राष्ट्रनिर्माता। दोगली नीतियों से भरोसा नहीं जीता जाता, बल्कि असली समाधान ही स्थायी संतोष देता है।"