पत्रकारिता का पतन : जब आईना धुंधला हो जाए

लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


पत्रकारिता का पतन : जब आईना धुंधला हो जाए

"जब आईना ही खरीदा-बेचा जाने लगे, तो चेहरों की सच्चाई कहाँ दिखाई देगी?"

भारतीय पत्रकारिता का इतिहास गौरवशाली रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन में अख़बारों और पत्रिकाओं ने वह काम किया जो आज बड़े-बड़े दल भी करने से डरते हैं—सत्ता से सीधा टकराना। गणेश शंकर विद्यार्थी ने "प्रताप" से न केवल नमक आंदोलन का समर्थन किया बल्कि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को अपने प्रेस में शरण दी। इस दौर में पत्रकारिता जनता की आवाज़ और न्याय की हथियार थी। पत्रकार का काम तथ्यों की पवित्रता बनाए रखते हुए अन्याय के खिलाफ खड़ा होना था।

लेकिन आज तस्वीर उलट चुकी है। पत्रकार का धर्म है सवाल पूछना, पर टीवी स्टूडियो में अब सवाल सत्ता से नहीं, जनता से पूछे जाते हैं। एंकर जज और वकील दोनों बन बैठते हैं। समाचार गायब है, नैरेटिव हावी है। सुबह की पर्ची से तय होता है कि दिन भर कौन-सा मुद्दा "खबर" कहलाएगा।

# गोदी मीडिया का उभार

आज मीडिया का बड़ा हिस्सा “गोदी मीडिया” के नाम से पहचाना जाने लगा है। उनका मिशन जनता को सूचित करना नहीं, बल्कि सत्ता का गुणगान करना है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) की 2024 की रिपोर्ट में भारत प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में 159वें स्थान पर रहा—यह गिरावट कोई संयोग नहीं, बल्कि पत्रकारिता की आत्महत्या का सबूत है।

जहाँ पत्रकार को सत्ता से सवाल पूछना चाहिए था, वहाँ वह विपक्ष को कठघरे में खड़ा कर रहा है। जहाँ उसे तथ्य प्रस्तुत करने थे, वहाँ आधे-अधूरे आँकड़े परोसकर जनमत को भ्रमित किया जा रहा है। और जहाँ उसे जनता की आवाज़ बनना था, वहाँ वह नेताओं का प्रवक्ता बन गया है।

# पत्रकारों की किस्में और मजबूरियाँ

आज के पत्रकारों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है—

1. "दस प्रतिशत" वे निर्भीक लोग जो अब भी जनता के पक्ष में खड़े हैं और हर सरकार से सवाल करते हैं।

2. "साठ प्रतिशत" वे जो सत्ता बदलते ही रंग बदल लेते हैं, जैसे बिन पेंदी के लोटे।

3. "तीस प्रतिशत" वे जो अपने निजी विचारधारा के कैदी हैं—सत्य की बजाय दलगत राजनीति की सेवा करते हैं।

यानी कुल मिलाकर पत्रकारिता अपनी निष्पक्षता खो चुकी है। जो बचा है, वह है प्रोपेगेंडा।

# संस्थागत दबाव और कॉर्पोरेट की पकड़

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ही बड़े औद्योगिक घरानों के कब्जे में हैं। इन घरानों का हित सरकारों से जुड़ा होता है, और जब मालिक सत्ता से समझौता करते हैं तो पत्रकारिता स्वतः बंधक बन जाती है। यही कारण है कि कई ईमानदार पत्रकार या तो हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं या फिर उनकी आवाज़ को दबा दिया जाता है।

जब मीडिया की रीढ़ टूटी, तो वैकल्पिक मंचों—यूट्यूब, स्वतंत्र पोर्टल, सोशल मीडिया—का उदय हुआ। लेकिन सरकार की कड़ी निगरानी यहाँ भी बनी रहती है।

# पत्रकारिता का असली धर्म

पत्रकार कभी निष्पक्ष नहीं हो सकता—उसे हमेशा जनता के पक्ष में रहना चाहिए। सरकार चाहे कोई भी हो, पत्रकारिता का काम है सत्ता की आँख में किरकिरी बनना। अगर पत्रकार को सत्ता की नीतियाँ "सही" लगने लगें और वह आलोचना से पीछे हटे, तो समझिए कि पत्रकारिता मर चुकी है।

पत्रकार का काम सलाह देना नहीं, बल्कि तथ्यों को सामने रखना है। हाँ, जब तथ्य सामने आते हैं तो वे खुद-ब-खुद नीति पर सवाल उठाते हैं—यही पत्रकारिता की ताक़त है। पत्रकार जनता के लिए आईना है; आईना सजाने या खुश करने का काम नहीं करता, वह केवल सच दिखाता है—चाहे वह कितना भी कटु क्यों न हो।

# पत्रकारिता की आखिरी परीक्षा

आज की पत्रकारिता एक चौराहे पर खड़ी है—या तो वह अपनी आत्मा सत्ता के चरणों में अर्पित कर दे और स्थायी रूप से “गोदी मीडिया” बन जाए, या फिर अपने मूल धर्म की ओर लौटे और जनता की आवाज़ बने।

"अगर पत्रकारिता सच का आईना नहीं बनेगी, तो यह देश झूठ के अंधकार में हमेशा के लिए खो जाएगा।"