मीडिया की स्वतंत्रता बनाम ऐतिहासिक सत्य : अंजना ओम कश्यप प्रकरण।

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला

मीडिया की स्वतंत्रता बनाम ऐतिहासिक सत्य : अंजना ओम कश्यप प्रकरण 

लखनऊ की न्यायिक मजिस्ट्रेट तृतीय अदालत द्वारा "आज तक" चैनल की एंकर अंजना ओम कश्यप के विरुद्ध परिवाद दर्ज किए जाने का आदेश केवल एक कानूनी घटना नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका और उसकी सीमाओं पर गंभीर बहस को जन्म देता है। मामला 14 अगस्त 2025 को प्रसारित उस कार्यक्रम से जुड़ा है, जिसमें विभाजन के प्रसंग को “भारत विभाजन का मकसद पूरा क्यों नहीं हुआ” शीर्षक के तहत प्रस्तुत किया गया।

1. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी सीमाएँ

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों और मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। किंतु अनुच्छेद 19(2) के तहत यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है। “भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार और नैतिकता” आदि कारणों से इस पर यथोचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

 Romesh Thappar बनाम State of Madras (1950) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिए जीवनरेखा है।

 लेकिन Kedar Nath Singh बनाम State of Bihar (1962) में अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि भाषण या अभिव्यक्ति समाज में हिंसा या वैमनस्य भड़काती है, तो उस पर दंडात्मक कार्यवाही संभव है।

2. तथ्य बनाम विचार

इतिहास को प्रस्तुत करते समय पत्रकारिता की दोहरी जिम्मेदारी होती है—

 तथ्यों की शुद्धता बनाए रखना,

और विचार-विमर्श की स्वतंत्रता देना।

S. Rangarajan बनाम P. Jagjivan Ram (1989) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभिव्यक्ति पर अंकुश तभी लग सकता है जब सार्वजनिक व्यवस्था को स्पष्ट और तात्कालिक खतरा हो। मात्र असहमति या अप्रसन्नता प्रतिबंध का आधार नहीं बन सकती।

इस संदर्भ में सवाल यह है कि क्या कार्यक्रम में प्रस्तुत सामग्री केवल कठोर आलोचना थी या उसमें सामुदायिक तनाव भड़काने का तत्व मौजूद था? यही इस मुकदमे का निर्णायक बिंदु बनेगा।

3. न्यायालय की प्रक्रिया और दृष्टि

मजिस्ट्रेट द्वारा परिवाद स्वीकार कर वादी का बयान 30 सितंबर 2025 को दर्ज करना न्यायिक प्रक्रिया का प्रारंभिक चरण है। इसका अर्थ यह नहीं कि एंकर दोषी सिद्ध हो गईं।

Subramanian Swamy बनाम Union of India (2016) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन प्रतिष्ठा और सामाजिक समरसता भी संरक्षित मूल्य हैं। अदालतों का काम इसी संतुलन को साधना है।

4. मीडिया की जवाबदेही

मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, लेकिन जब वह TRP या सनसनी के लिए ऐतिहासिक आघातों को भड़काने लगे तो समाज के संवेदनशील धागे टूटने लगते हैं।

Pravasi Bhalai Sangathan बनाम Union of India (2014) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नफरत फैलाने वाले भाषण और सामग्री का सीधा असर सामाजिक सामंजस्य पर पड़ता है, और इसके खिलाफ कानूनी व सामाजिक दोनों उपाय आवश्यक हैं।

5. लोकतांत्रिक विमर्श की कसौटी

लोकतंत्र की शक्ति उसकी बहस की संस्कृति में है। पत्रकारिता का असली उद्देश्य तथ्यपरक और संतुलित बहस को जन्म देना है, न कि सामुदायिक विभाजन की स्मृतियों को बार-बार कुरेदना।

यहाँ प्रश्न यही है कि मीडिया किस हद तक इतिहास की व्याख्या कर सकता है और कब वह सामुदायिक तनाव का उत्प्रेरक बन जाता है।

अंजना ओम कश्यप का मामला हमें यह याद दिलाता है कि—

 यदि मीडिया तथ्य से विमुख होकर उत्तेजना पैदा करता है, तो लोकतंत्र कमजोर होगा।

 और यदि अदालतें अभिव्यक्ति पर अति-नियंत्रण लगाएँगी, तो लोकतंत्र की आत्मा आहत होगी।

समाधान केवल संतुलन में है:

तथ्य की निष्ठा, विचार की स्वतंत्रता, और समाज की संवेदनशीलता—तीनों का संयोजन ही लोकतांत्रिक पत्रकारिता और न्याय की कसौटी है।