बढ़ती चीनी मिठास: अवसर या भ्रांति?
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
बढ़ती चीनी मिठास: अवसर या भ्रांति?
भारत के प्रधानमंत्री की वर्तमान चीन यात्रा पर जो परंपरागत स्वागत दिखाई दे रहा है, वह सतही तौर पर आश्वस्ति और मित्रता का संकेत अवश्य देता है। किंतु इस कूटनीतिक मिठास की परतों के नीचे छिपी वास्तविकताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में शायद ही कोई देश चीन जितना अप्रत्याशित और अस्थिर व्यवहार वाला रहा हो।
1950 के दशक में पंचशील समझौते के सिद्धांतों का सह-निर्माण करने के बावजूद चीन ने "हिंदी-चीनी भाई-भाई" के नारों को मात्र एक रणनीतिक छल साबित किया। 1962 का युद्ध न केवल भारत की सीमाओं पर आघात था, बल्कि स्वतंत्र भारत की आत्मा पर भी गहरी चोट। पंडित नेहरू की पीड़ा और देश का मनोबल दोनों उस धोखे से लंबे समय तक उबर नहीं पाए। तिब्बत का पूर्ण अधिग्रहण, अक्साई चीन पर कब्ज़ा और अरुणाचल प्रदेश पर लगातार दावे—ये तथ्य चीन की रणनीतिक महत्वाकांक्षा की सतत याद दिलाते हैं।
राजीव गांधी की 1988 की यात्रा से लेकर 1993 के वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) समझौते तक, भारत ने बार-बार संबंधों को सामान्य करने का प्रयास किया। 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने तो "चीनी मैत्री वर्ष" घोषित कर नई ऊर्जा का संचार करने का भी प्रयास किया। किंतु 2020 के गलवान संघर्ष ने यह स्पष्ट कर दिया कि भरोसे की नींव अभी भी खोखली है। हाल ही में सैनिक टुकड़ियों को पीछे हटाने पर सहमति बनी है, किंतु वह अधिकतर सामरिक दबाव का परिणाम है, न कि स्थायी समाधान का।
भारत का विशाल उपभोक्ता बाजार चीन के लिए आकर्षण का केंद्र है। गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों से लेकर झालरों और दीपकों तक, चीनी वस्तुओं ने भारतीय घरेलू बाजार को पहले ही बुरी तरह प्रभावित किया है। यदि द्विपक्षीय व्यापार को और गहनता दी जाती है, तो भारत के लघु एवं कुटीर उद्योगों पर गहरा आघात पड़ना तय है—जो बेरोजगारी और सामाजिक असंतुलन को और बढ़ा सकता है।
चीन की बेचैनी केवल भारत से व्यापार बढ़ाने की नहीं है। वह 'चिकिन नेक' (सिलीगुड़ी कॉरिडोर) जैसी संवेदनशील भू-धाराओं और बंगाल की खाड़ी तक सामरिक पहुँच बनाने में भी रुचि रखता है। यह न केवल पूर्वोत्तर भारत के लिए खतरा है, बल्कि समूचे हिंद-प्रशांत संतुलन के लिए चुनौती है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ चीन की सक्रियता उसी बड़ी रणनीति का हिस्सा है।
इतिहास बताता है कि चीन की मित्रता अक्सर अवसरवादी और अस्थायी रही है। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह किसी भी "मिठास" को कूटनीतिक धैर्य और ठंडे विवेक से परखे। अमेरिका की अनिश्चितता और यूरोप की आंशिक दूरी के बीच चीन को मित्र बनाना रणनीतिक दृष्टि से आवश्यक हो सकता है, लेकिन इस मित्रता का शोर मचाना आत्मघाती सिद्ध होगा।
भारत को आज जिस नीति की आवश्यकता है, वह है संतुलित कूटनीति—जहाँ भावनाओं या तात्कालिक आकर्षण से परे, दीर्घकालीन राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हों। चीन के साथ संवाद अवश्य होना चाहिए, किंतु बराबरी और सजगता के आधार पर। क्योंकि महान शक्तियों की दुनिया में स्थायी मित्र नहीं होते, केवल स्थायी हित होते हैं।