नई दिल्ली: चुनावी संस्थानों और संवैधानिक पदाधिकारियों पर उठते सवाल — लोकतंत्र के लिए चेतावनी की घंटी?

 संवाददाता: प्रदीप शुक्ला

चुनावी संस्थानों और संवैधानिक पदाधिकारियों पर उठते सवाल — लोकतंत्र के लिए चेतावनी की घंटी?

नई दिल्ली : हाल ही में हरियाणा के जाने-माने सैफोलॉजिस्ट रविंद्र सिंह श्योराण के यूट्यूब चैनल पर शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) के वरिष्ठ नेता किशोर तिवारी ने एक चौंकाने वाला दावा किया। उनके अनुसार, सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार देश छोड़ चुके हैं और माल्टा की नागरिकता ले ली है। हालांकि, इस दावे की आधिकारिक पुष्टि अभी तक नहीं हुई है।

यदि यह सूचना सही सिद्ध होती है, तो इसका राजनीतिक और संवैधानिक महत्व अत्यधिक होगा। आरोप है कि पिछले लोकसभा चुनाव में व्यापक चुनावी अनियमितताओं में उनकी भूमिका रही और इसके खुलासे के बाद संभावित जनाक्रोश व दंड की आशंका के चलते वे देश छोड़कर चले गए। यह प्रश्न भी उभरता है कि क्या यह स्थिति राहुल गांधी द्वारा लगाए गए चुनावी धांधली के आरोपों को सही ठहराने की दिशा में एक कदम है?



पूर्व उपराष्ट्रपति को लेकर भी उठ रही शंकाएँ

इसी तरह, पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को लेकर भी सोशल मीडिया और क्षेत्रीय मीडिया में अटकलें जोरों पर हैं। कभी उनके गुमशुदा होने की, तो कभी नजरबंदी या हाउस अरेस्ट की खबरें प्रसारित हो रही हैं। आज कुछ तमिल मीडिया रिपोर्ट्स में उनके हाउस अरेस्ट का उल्लेख भी आया।

हालाँकि, इन दावों की भी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है और न ही सरकार की ओर से कोई स्पष्ट बयान जारी हुआ है। सवाल यह है कि संवैधानिक पद पर रहे एक नेता के संदर्भ में पारदर्शी जानकारी का अभाव क्यों है?

राजनीतिक, विधिक और संवैधानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण

1. संवैधानिक दृष्टिकोण

मुख्य चुनाव आयुक्त और उपराष्ट्रपति दोनों ही संविधान के उच्च पद हैं, जिनकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता लोकतांत्रिक ढाँचे के स्तंभ मानी जाती है।

यदि इन पदों पर आसीन व्यक्तियों के संदर्भ में गंभीर आरोप और अटकलें बिना आधिकारिक स्पष्टीकरण के फैलती हैं, तो यह संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को कमजोर करता है।

2. विधिक पहलू

 किसी भी पूर्व पदाधिकारी के खिलाफ आरोप होने पर उचित कानूनी जांच और न्यायिक प्रक्रिया आवश्यक है, न कि अफवाहों के आधार पर जनमत निर्माण।

  नागरिकता परिवर्तन या विदेश प्रवास के मामलों में भी अंतरराष्ट्रीय कानून और द्विपक्षीय संधियों का पालन किया जाता है, जिन पर सरकार का आधिकारिक रुख स्पष्ट होना चाहिए।

3. राजनीतिक दृष्टिकोण

 यदि विरोधी नेताओं या संवैधानिक पदाधिकारियों को राजनीतिक प्रतिशोध का सामना करना पड़े, तो यह लोकतांत्रिक असहमति के अधिकार पर सीधा प्रहार होगा।

 इस प्रकार की अटकलें और सूचनाएँ सत्ता बनाम विपक्ष के संघर्ष को और तीखा करती हैं, जिससे जनता का भरोसा राजनीतिक व्यवस्था से हट सकता है।

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भारत का लोकतंत्र संवैधानिक संस्थाओं की पारदर्शिता और जवाबदेही पर टिका है। जब उच्च पदों पर रहे व्यक्तियों के बारे में गंभीर आरोप और अफवाहें फैलती हैं, और सरकार या संबंधित संस्थाओं की ओर से कोई स्पष्ट स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता, तो यह न केवल राजनीतिक अस्थिरता को जन्म देता है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की जड़ों को भी हिला सकता है।

यह समय है कि आधिकारिक स्रोत स्थिति स्पष्ट करें और आवश्यकता पड़ने पर स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच हो, ताकि जनता का विश्वास पुनः स्थापित हो सके।