विदेश नीति: दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र का आधार।

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला


विदेश नीति: दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र का आधार

विदेश नीति किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होती है, और इसकी सफलता भरोसे, निरंतरता और दूरदर्शिता पर निर्भर करती है। यह सिर्फ राजनयिकों या सरकारों का विषय नहीं, बल्कि यह सीधे तौर पर नागरिकों के जीवन, उनके आर्थिक अवसरों और देश की सुरक्षा को प्रभावित करती है। दुर्भाग्य से, हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि भारत में विदेश नीति को चुनावी लाभ और दलगत राजनीति का एक मोहरा बना दिया गया है, जिसका खामियाजा अब सामने आ रहा है। 

स्थिरता से समझौता: जनता को नुकसान

अंतरराष्ट्रीय संबंध रातोंरात नहीं बनते। दशकों के संवाद, विश्वास निर्माण और जटिल समझौतों से एक स्थिर वैश्विक स्थिति का निर्माण होता है। जब ये संबंध कुछ ही महीनों की राजनीतिक अदला-बदली या सरकार के बदलने पर टूट जाते हैं, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान जनता को उठाना पड़ता है। विदेशी निवेश के प्रवाह में कमी आती है, तकनीकी सहयोग बाधित होता है, और वैश्विक मंचों पर देश की विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं। छोटे कारोबारी, किसान और मजदूर इस अस्थिरता का सीधा खामियाजा भुगतते हैं। बड़े उद्योगपति तो वैश्विक स्तर पर अपने हितों को सुरक्षित करने में सक्षम होते हैं, लेकिन आम नागरिकों के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन जाती है।

गुटनिरपेक्षता से चुनावी नारों तक

भारत का इतिहास हमें बताता है कि कैसे दीर्घकालिक सोच से विदेश नीति के सिद्धांतों का निर्माण किया गया। स्वतंत्रता के बाद गुटनिरपेक्ष नीति (Non-Aligned Movement) जैसी पहलें इसी दूरदर्शिता का परिणाम थीं। इस नीति का उद्देश्य किसी भी वैश्विक शक्ति गुट में शामिल न होकर अपनी स्वतंत्र सोच और राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रखना था। इसने भारत को नैतिक बल दिया और उसे विकासशील देशों के बीच एक नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित किया।

लेकिन समय के साथ, जब राजनीति में चुनावी लाभ अधिक महत्वपूर्ण हो गया, तो विदेश नीति भी भाषणों और तात्कालिक लोकप्रियता की दौड़ में फंस गई। पड़ोसी देशों के प्रति कठोर बयानबाजी करना या वैश्विक मंचों पर केवल तालियां बटोरना देश के दीर्घकालिक हितों के लिए हानिकारक साबित हुआ।

 ट्रम्प का सबक: एक कठोर वास्तविकता

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा लगाए गए टैरिफ झटके ने आखिरकार भारतीय नेतृत्व को एक कठोर सबक सिखाया है। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय संबंध सिर्फ व्यक्तिगत समीकरणों या तात्कालिक राजनीतिक लाभ पर आधारित नहीं हो सकते। यह दर्शाता है कि वैश्विक मंच पर स्थिरता और दूरदर्शिता कितनी आवश्यक है। यह एक कड़वी सच्चाई थी जिसने यह साबित कर दिया कि विदेश नीति को दलों के प्रचार का हिस्सा नहीं, बल्कि देश की दीर्घकालिक आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा का आधार बनाया जाना चाहिए।

अब यह आवश्यक है कि भारतीय नेतृत्व इस सबक से सीखे। विदेश नीति को संकीर्ण राजनीतिक हितों से मुक्त कर शांति, सहयोग और साझा विकास के सिद्धांतों पर वापस लाया जाए। यह देश की विश्वसनीयता को बहाल करेगा और एक ऐसे भविष्य का मार्ग प्रशस्त करेगा जहां भारत न केवल एक क्षेत्रीय, बल्कि एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभा सके।