बिहार: नीतीश की वापसी, पर बिहार की चुनौतियाँ अब और कठिन

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


नीतीश की वापसी, पर बिहार की चुनौतियाँ अब और कठिन

—एक विश्लेषण: विकास के वादों, जनांकिकीय दबावों और आर्थिक वास्तविकताओं के बीच नया बिहार किस दिशा में जाएगा?

बिहार ने एक बार फिर नीतीश कुमार को सत्ता के केंद्र में ला दिया है। एनडीए की जीत को स्थिरता का जनादेश माना जा रहा है और राजनीतिक विश्लेषकों के बीच आम सहमति है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश की वापसी लगभग तय है। दो दशकों में नीतीश कुमार ने कानून-व्यवस्था, महिलाओं की भागीदारी, बुनियादी ढाँचा और शिक्षा में दिखाई गई सक्रियता ने उन्हें ‘सुशासन बाबू’ की स्थायी पहचान दी है।

लेकिन यह तस्वीर अधूरी है। क्योंकि सुशासन की कहानी वहीं से शुरू होती है जहाँ विकास ठहर जाता है और बिहार की स्थिति यही है—कुछ चमकदार उपलब्धियों के बीच भारी सामाजिक, आर्थिक और जनसंख्या-जन्य दबाव।

अब जब जनादेश साफ़ है, तो सवाल यह नहीं कि नीतीश सरकार वापसी करेगी या नहीं; सवाल यह है कि क्या वह बिहार को पिछड़ेपन के चक्र से बाहर निकाल पाएगी?

1. पलायन: युवा बिहार का सबसे बड़ा पलायनवाद संकट

बिहार की राजनीति ने इस बार रोज़गार और पलायन को केंद्र में ला दिया। आरजेडी की सरकारी नौकरी की गारंटी हो या एनडीए का "एक करोड़ नौकरियाँ"—यह साफ़ संकेत था कि बिहार में आज भी युवाओं का भविष्य बिहार में नहीं, बिहार से बाहर है।

* हर 3 में से 2 परिवार का एक सदस्य प्रवासी मजदूर।

* 1981 के 10-15% से 65% तक प्रवासी परिवारों में उछाल।

* 2023 में सबसे व्यस्त अनरिजर्व्ड ट्रेन मार्ग—बिहार से शुरू होने वाले।

ये सिर्फ आँकड़े नहीं, यह एक राज्य का मौन स्वीकार है कि उसने अपने ही युवाओं को रोजगार देने की क्षमता खो दी है।

छोटी भूमि holdings, कमजोर मैन्युफैक्चरिंग और सीमित उद्योग—इन सभी ने मिलकर बिहार को भारत का लेबर-सप्लाई स्टेट बना दिया है।

2. शहरीकरण: 21वीं सदी का बिहार, लेकिन 11% शहरी आबादी

भारत में विकास का इंजन शहरों से चलता है। लेकिन बिहार अभी भी अतीत में अटका है:

 केरल 47.7%

 तमिलनाडु 48.4%

 गुजरात 42.6%

 और बिहार… सिर्फ 11.3%

2013-2023 के नाइट-लाइट डेटा बताते हैं कि बिहार का बुनियादी ढाँचा बढ़ा जरूर है, पर आर्थिक गतिविधियों का विस्तार बेहद धीमा है। एक ग्रामीण राज्य 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था नहीं चला सकता—बिहार की समस्या की जड़ यही है।

3. मैन्युफैक्चरिंग: बिहार की सबसे बड़ी आर्थिक खाई

बीस साल पहले जहाँ मैन्युफैक्चरिंग थी, आज भी बिहार लगभग वहीं खड़ा है:

 बिहार की GSDP में योगदान: 5–6%

 गुजरात की तुलना: 36%

यह अंतर सिर्फ उद्योगों का नहीं, यह अंतर राज्य की विकास-दृष्टि, प्रशासनिक दक्षता और निवेशकों के विश्वास का है।

कम फैक्ट्रियाँ = कम कौशल = कम नौकरियाँ = अधिक पलायन। यह एक दुष्चक्र है—और बिहार अभी भी उसी में फँसा है।

4. अपराध: ‘जंगलराज खत्म’ के दावे बनाम बढ़ते आंकड़े

नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता अपराध के खिलाफ अभियान चलाकर ही हासिल की थी। लेकिन NCRB और राज्य के अपने आंकड़े अब एक अलग कहानी बोल रहे हैं—

 2015–2024 के बीच अपराध दर में तेज़ वृद्धि

 2023 में हत्याओं की संख्या—2862 (देश में दूसरा सबसे ऊँचा)

सरकारी कर्मचारियों पर हमले—371, देश में सबसे ज़्यादा

यह स्पष्ट है कि सुधारों की शुरुआती रफ्तार धीरे-धीरे ठहर गई है। कानून-व्यवस्था का गिरना निवेश, उद्योग और सामाजिक विश्वास—तीनों पर असर डालता है।

5. आय: भारत आगे, बिहार पीछे—और यह खाई बढ़ रही है

भारत की प्रति व्यक्ति आय—1.89 लाख रुपये

बिहार की—60,000 रुपये, राष्ट्रीय औसत का एक-तिहाई।

और असमानता?

 पटना: ₹2,15,049

 शिवहर: ₹33,399

एक राज्य, दो अर्थव्यवस्थाएँ—एक समृद्ध द्वीप और एक विशाल गरीब समुद्र। जब तक यह अंतर कम नहीं होगा, बिहार की आर्थिक कहानी अधूरी रहेगी।

6. शिक्षा: ड्रॉप-आउट का खतरा और जनसंख्या का दबाव

शिक्षा में सुधार जरूर हुए, लेकिन—

 मिडिल स्कूल के बाद भारी ड्रॉप-आउट

कौशल की कमी

 और सीमित रोजगार अवसरों के कारण सामाजिक गतिशीलता थमी हुई

ऊपर से, जनसंख्या वृद्धि 2.8 TFR—भारत के सबसे ऊँचे स्तरों में से एक।

कम मृत्यु दर + उच्च प्रजनन दर = स्कूल, अस्पताल और नौकरियों पर असहनीय दबाव।

हालाँकि स्वास्थ्य सूचकांक अपने पड़ोसी राज्यों से बेहतर हैं, लेकिन ये उपलब्धियाँ उस गति से नहीं बढ़ रहीं, जिस रफ्तार से बिहार की जनसंख्या बढ़ रही है।

# नीतीश की वापसी स्थिरता तो दे सकती है, पर समाधान नहीं

बिहार के सामने आज चुनौती नीति की नहीं, दृष्टि की है। सवाल यह है कि क्या नई सरकार—

* रोजगार सृजन को प्राथमिकता देगी?

* शहरीकरण की रफ्तार को दोगुना कर पाएगी?

* उद्योगों को आकर्षित कर पाएगी?

* अपराध पर नियंत्रण वापस पा सकेगी?

* और बढ़ती आबादी को अवसर में बदल पाएगी?

बिहार में आज भी उम्मीद है—उसकी युवा ताकत, बढ़ता स्वास्थ्य स्तर, और राजनीतिक स्थिरता। परन्तु उम्मीद तभी दिशा बनती है जब शासन वास्तविकता को स्वीकार कर साहसिक फैसले ले।

“नीतीश जीत गए हैं—लेकिन बिहार तब जीतेगा, जब उसकी युवा भी घर लौटकर कहेंगे: अब अवसर हमारे राज्य में है।”