खेल बनाम युद्ध: पत्रकारिता की मर्यादा पर सवाल

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


खेल बनाम युद्ध: पत्रकारिता की मर्यादा पर सवाल

भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच सदैव ही भावनाओं का महासंग्राम रहा है। मैदान पर खिलाड़ी अपनी कला और रणनीति से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते हैं। परंतु जब समाचार माध्यम इस खेल को “ऑपरेशन सिंदूर 2.0” जैसी हेडलाइन से प्रस्तुत करें, तब यह केवल शब्दों का खेल नहीं रह जाता—यह पत्रकारिता की आत्मा पर प्रश्नचिह्न बन जाता है।

“कलम से अगर क्रिकेट की जीत भी युद्ध बने, तो ये पत्रकारिता नहीं, प्रोपेगेंडा है।”

# युद्धोन्मादी हेडलाइन का दुष्प्रभाव

क्रिकेट का संबंध न तो मिसाइलों से है, न ही “एस-400” जैसे हथियारों से। यह प्रतिस्पर्धा है, युद्ध नहीं। ऐसे में अखबार द्वारा प्रयुक्त भाषा न केवल खेल की शुद्धता को आहत करती है, बल्कि पाठकों के मन में नफ़रत, आक्रामकता और द्वेष भी भर देती है। यह पत्रकारिता का सबसे खतरनाक रूप है, जो समाज को संवाद से अधिक टकराव की ओर धकेलता है।

“जब अख़बार की हेडलाइनें खून माँगने लगें, तो खेल का पसीना भी शर्मसार हो जाता है।”

# पत्रकारिता की जिम्मेदारी

समाचार-पत्र केवल सूचना देने का माध्यम नहीं हैं; वे समाज की मानसिकता और नैतिकता को भी गढ़ते हैं। यदि मीडिया युद्ध जैसी भाषा में खेल को परिभाषित करेगा, तो वह खेल भावना और खिलाड़ियों की मेहनत को ढककर केवल सनसनी और बाज़ारवाद को बढ़ावा देगा।

पत्रकारिता का धर्म है— सत्य, संवेदनशीलता और संतुलन। जब यह धर्म छोड़ा जाता है, तो वह केवल विज्ञापन और TRP की दौड़ बनकर रह जाती है।

“पत्रकारिता का काम मशाल जलाना है, बारूद भरना नहीं।”

# पाठक की सजगता: उम्मीद की किरण

सोशल मीडिया पर उठी आलोचना इस बात का प्रमाण है कि पाठक अब निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं रहे। “आज ही से अखबार बंद” जैसी प्रतिक्रियाएँ बताती हैं कि समाज अब पत्रकारिता की भाषा और दृष्टिकोण पर सवाल उठा रहा है। यह लोकतंत्र और प्रेस—दोनों के लिए शुभ संकेत है। दरअसल, पाठक की सजगता ही प्रेस की मर्यादा तय करती है।

# राष्ट्रभावना और अंधा राष्ट्रवाद

पत्रकारिता में राष्ट्रभावना होना स्वाभाविक है, लेकिन जब यह राष्ट्रवाद अंधे युद्धोन्माद में बदल जाए, तो वह समाज को विभाजित करने वाला हथियार बन जाता है।

भारत की जीत को मिसाइल या ऑपरेशन कहने के बजाय इसे खिलाड़ियों की रणनीति, अनुशासन और मेहनत का उत्सव बनाना ही सच्ची राष्ट्रसेवा होती।

“ऑपरेशन सिंदूर 2.0” जैसी हेडलाइन यह संकेत देती है कि भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पत्रकारिता की मूल मर्यादाओं से भटककर सनसनीखेज राष्ट्रवाद की राह पर चल पड़ा है। अब आवश्यकता है कि पाठक अपनी सजगता से ऐसी भाषा को अस्वीकार करें और मीडिया से संवेदनशील, जिम्मेदार और संतुलित रिपोर्टिंग की मांग करें; क्योंकि अंततः पत्रकारिता वही है, जो समाज में संवाद को बढ़ाए, न कि टकराव को।