वैदिक देवध्वज : सूर्यकेतु का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
वैदिक देवध्वज : सूर्यकेतु का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्वमानव सभ्यता के आरम्भ से ही ध्वज केवल एक वस्त्र का टुकड़ा नहीं रहा है, बल्कि सामूहिक चेतना, पहचान और विजय का प्रतीक रहा है। युद्धभूमि से लेकर यज्ञभूमि तक, ध्वज ने सदैव प्रेरणा और एकता का संदेश दिया है। भारतीय परंपरा में विशेषतः वैदिक युग से ध्वज का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण रहा है। "त्रिकोण रक्तवर्ण के वस्त्र पर अंकित श्वेत सूर्य" का ध्वज प्राचीन ग्रंथों में विजयप्रद देवध्वज के रूप में वर्णित है।
# वैदिक संदर्भ
ऋग्वेद और अथर्ववेद में "केतु" और "ध्वज" के अनेक उल्लेख मिलते हैं। केतु शब्द का अर्थ है—चिह्न, ध्वज, प्रतीक।
“एता देवसेनाः सूर्यकेतवः सचेतसः । अमित्रान् नो जयतु स्वाहा।।
(अथर्ववेद ५.२१.१२)
👉 इस मंत्र में "सूर्य के ध्वज" को देवसेना कहा गया है, जो सजग होकर शत्रुओं का नाश करता है और विजय दिलाता है।
“अरुणैः केतुभिः सह”
(अथर्ववेद ११.१२.२)
👉 यहाँ अरुणवर्ण ध्वजों का उल्लेख है। अरुण रंग उषा और सूर्य का रंग है—जो जागरण, नवप्रभात और ऊर्जा का प्रतीक है।
इन मंत्रों से स्पष्ट है कि वैदिक आर्य केवल दैवी शक्तियों की उपासना ही नहीं करते थे, बल्कि उन शक्तियों को ध्वजों और प्रतीकों के रूप में भी प्रतिष्ठित करते थे।
# प्रतीकात्मक स्वरूप
1. रक्तवर्ण त्रिकोण — लाल रंग पराक्रम, बलिदान और जीवनशक्ति का प्रतीक है। त्रिकोण रूप से यह ऊर्ध्वगमन (ऊपर उठने की आकांक्षा) का द्योतक है।
2. श्वेत सूर्य चिह्न — सूर्य सत्य, प्रकाश, ज्ञान और आत्मिक शुद्धता का प्रतीक है। श्वेत रंग निर्मलता और निष्कलुषता का बोध कराता है।
3. ध्वज का विजय–स्वरूप — वैदिक ध्वज केवल यज्ञभूमि की शोभा न बढ़ाता था, बल्कि उसे देखकर सैनिकों और समाज में उत्साह और विजय का भाव भी जागृत होता था।
# वैदिक ध्वज से ऐतिहासिक ध्वजा–परंपरा तक
भारतीय इतिहास में ध्वजों की परंपरा निरंतर चली आती है।
महाभारत में प्रत्येक महारथी का अपना केतु (ध्वजचिह्न) था — अर्जुन का हनुमान ध्वज, भीष्म का पलाश पुष्प ध्वज, कर्ण का हाथी ध्वज आदि। यह केवल पहचान नहीं, बल्कि उनके आदर्श और संकल्प के प्रतीक थे।
गुप्तकाल और मौर्यकाल में भी राजध्वजों का उल्लेख मिलता है।
मध्यकाल में भगवा ध्वज अनेक संप्रदायों (विशेषतः वैष्णव, शैव और गुरु–परंपरा) का द्योतक बना।
आज भी ध्वज हमारी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पहचान का अविभाज्य अंग है। भारत का तिरंगा उसी परंपरा का आधुनिक रूप है — जिसमें भगवा (त्याग और पराक्रम), श्वेत (सत्य और शांति) और हरा (समृद्धि और संतुलन) के साथ चक्र (धर्म और गति) अंकित है। यह परंपरा कहीं न कहीं वैदिक ध्वज की ही पुनर्व्याख्या है।
सनातन धर्म का भगवा ध्वज आज भी मंदिरों, आश्रमों और धार्मिक यात्राओं में दैवीय आशीर्वाद और सांस्कृतिक पहचान का जीवित प्रतीक है।
वैदिक देवध्वज, विशेषकर "रक्तवर्ण त्रिकोण पर श्वेत सूर्य" का ध्वज, केवल एक धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि जीवन के उच्च आदर्शों का द्योतक है। यह हमें याद दिलाता है कि ध्वज की ऊँचाई केवल कपड़े की ऊँचाई नहीं, बल्कि आदर्शों की ऊँचाई है।
वैदिक मंत्रों से लेकर आधुनिक राष्ट्रध्वज तक, ध्वज भारतीय संस्कृति में एक निरंतर धारा है — जो हमें साहस, आस्था और विजय का संदेश देती है।