बादल, बारिश और बाढ़ : विनाश के बाद विकास या विकास का विनाश?

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 

बादल, बारिश और बाढ़ : विनाश के बाद विकास या विकास का विनाश?

भारत का मानसून हर वर्ष जीवन और मृत्यु दोनों का संदेश लेकर आता है। जहाँ एक ओर यह किसानों के लिए वरदान है, खेतों को हरियाली और नदियों को जीवन देता है, वहीं दूसरी ओर बादल फटने, बाढ़ और भू-स्खलन जैसी आपदाएँ हज़ारों जिंदगियाँ निगल जाती हैं।

इस दोहरी वास्तविकता के बीच हमें यह गंभीर प्रश्न पूछना ही होगा—क्या यह केवल प्राकृतिक विनाश है या हमारे विकास मॉडल का विनाशकारी परिणाम?

✦ बाढ़ : प्राकृतिक या मानवनिर्मित?

यह सच है कि बारिश और बाढ़ प्रकृति का हिस्सा हैं, लेकिन आज की तबाही का बड़ा हिस्सा हमारी अपनी नीतियों और विकास दृष्टि से उपजा है।

नदी किनारे बस्तियाँ, पहाड़ों पर अंधाधुंध निर्माण, जंगलों की कटाई, जलनिकासी प्रणाली की उपेक्षा—ये सब मिलकर प्राकृतिक आपदा को मानव निर्मित आपदा में बदल देते हैं।

गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कोसी और महानदी हर साल चेतावनी देती हैं, लेकिन हमारी नीतियाँ "आपदा के बाद राहत" तक ही सीमित रहती हैं, "आपदा से पहले तैयारी" पर नहीं।

✦ विकास का विनाशकारी चेहरा

आज का विकास का मॉडल "सीमेंट-कंक्रीट" को ही प्रगति मान बैठा है।

सड़कों, पुलों और बाँधों के नाम पर नदियों का प्राकृतिक प्रवाह रोका गया है।

शहरों में ग्लोबल शहर बनाने की होड़ में जलभराव का समाधान भुला दिया गया।

परिणाम यह कि विकास ने ही विकास को निगलना शुरू कर दिया है।

✦ विनाश के बाद विकास की राजनीति

आपदा के बाद सरकारें राहत पैकेज और पुनर्विकास योजनाएँ घोषित करती हैं।

नेताओं के दौरे, हेलीकॉप्टर से सर्वेक्षण, और मुआवज़े की घोषणाएँ ही "विकास" का प्रतीक बन जाती हैं।

पर सवाल यह है कि जब वही गलती बार-बार दोहराई जाती है, तो क्या यह वास्तव में विकास है या केवल राजनीतिक प्रबंधन?

✦ जनता की त्रासदी

हर वर्ष हज़ारों लोग विस्थापित होते हैं, घर उजड़ते हैं, किसान कर्ज़ में डूबते हैं, बच्चे शिक्षा से वंचित होते हैं।

लेकिन इनके दर्द पर विमर्श करने के बजाय "प्रकृति का कोप" कहकर सारी ज़िम्मेदारी से हाथ धो लिया जाता है।

जबकि असलियत यह है कि "जनता आपदा से नहीं, व्यवस्था से हारती है।"

✦ समाधान की दिशा

1. सस्टेनेबल डेवलपमेंट – निर्माण कार्य प्राकृतिक संतुलन के अनुसार हों।

2. आपदा पूर्व प्रबंधन – राहत के बजाय पहले से तैयारी पर ज़ोर।

3. नदी-मैत्री नीतियाँ – नदियों के प्राकृतिक प्रवाह और बाढ़क्षेत्र को सुरक्षित रखना।

4. स्थानीय भागीदारी – ग्राम और नगर स्तर पर आपदा प्रबंधन समितियाँ।

5. प्राकृतिक संसाधनों का पुनर्निर्माण – वनों की कटाई पर रोक और भूजल संरक्षण। 

बारिश और बाढ़ हमें हर साल यह सिखाते हैं कि प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं, संतुलन ही अस्तित्व का आधार है।

यदि हम विकास को केवल इमारतों, बाँधों और सड़कों तक सीमित रखेंगे, तो यह विकास ही विनाश का कारण बनेगा।

समय की माँग है कि हम "विनाश के बाद विकास" की मानसिकता छोड़कर "विनाश रोकने वाला विकास" अपनाएँ।

क्योंकि अगर विकास ही जीवन को सुरक्षित न रख पाए, तो वह विकास नहीं—विकास का विनाश है।