क्या आपकी ज़िंदगी में मानसिक उलझनें चुपचाप घर कर रही हैं?
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
क्या आपकी ज़िंदगी में मानसिक उलझनें चुपचाप घर कर रही हैं?
आज की तेज़-तर्रार ज़िंदगी में रिश्तों की पचीदगियाँ, करियर का दबाव और परिवार की अपेक्षाएँ मिलकर हमारे मन में ऐसे तूफ़ान खड़े कर देती हैं, जो किसी को स्किज़ोफ्रेनिया या एंटी-सोशल पर्सनालिटी डिसऑर्डर जैसे विकारों की ओर धकेलने की क्षमता रखते हैं। अगर आपको लगता है कि सूझने-समझने में कठिनाई हो रही है, काम में ध्यान नहीं लग रहा, भावनात्मक थकावट है, या छोटी बातों पर आप अचानक ‘हाइपर’ हो जाते हैं—तो यह नाकाम गहरी समस्याओं के संकेत हो सकते हैं।
तथ्यगत विश्लेषण
1. मूल आंकड़े और व्यापक परिदृश्य
लगभग 14% भारतीय जनता यानी 197 मिलियन लोग मानसिक विकारों से पीड़ित हैं।
60–70 मिलियन लोग सामान्य से लेकर गंभीर मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं, और भारत "विश्व आत्महत्या राजधानी" बन चुका है—कई सालों में सैकड़ों हजार, प्रतिवर्ष, आत्महत्या की घटनाएं दर्ज़ होती हैं।
आर्थिक दृष्टिकोण से, मानसिक स्वास्थ्य समस्या 2012 से 2030 के बीच भारत को \$1.03 ट्रिलियन का अनुमानित नुकसान पहुंचा रही है।
2016 के NMHS के अनुसार, भारत में केवल 10.6% वयस्कों को मानसिक विकार हैं, लेकिन 70–92% को स्वास्थ्य सेवा तक पहुँचना संभव नहीं है—यह बड़ा चिकित्सीय अंतर दर्शाता है।
देश में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की संख्या अत्यधिक कम है—
• केवल 0.75 मानसिक चिकित्सक प्रति 100,000 लोग हैं, जबकि WHO की अनुशंसित संख्या 3 है।
• इसी तरह, मानसिक स्वास्थ्य के अन्य पेशेवर जैसे मनोवैज्ञानिक और नर्सों की संख्या भी बहुत कम है।
2. उदाहरण और समर्थन तंत्र
Tele-MANAS जैसे सरकारी टेली हेल्पलाइन (मी-नि-VAS का हौसला बढ़ाने वाले) ने तीन वर्षों में 65,000 से अधिक कॉल प्राप्त किए, जिनमें से 15% मामले गंभीर (जैसे आत्महत्या) थे, जिन्हें विशेषज्ञों द्वारा आगे उपचार के लिए भेजा जाता है।
Plum रिपोर्ट 2025 बताती है कि एक-में-पांच भारतीय कर्मचारी मानसिक स्वास्थ्य समर्थन की तलाश में हैं, और 20% लोग बर्न-आउट के कारण नौकरी छोड़ने तक सोचते हैं।
IC3 और CISCE का Student Well-being Pulse Report 2025 स्कूल छात्रों में मानसिक दबाव को उजागर करता है—"हर पाँचवाँ छात्र शांति या प्रेरणा की कमी महसूस करता है", रात में दुनिया भर में ठीक सो नहीं पाता, और आत्महत्या की संख्या चिंताजनक रूप से अधिक है।
सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और मानसिक दृष्टिकोण से विश्लेषण
सामाजिक दृष्टिकोण
परिवारिक तानों ने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति हमारी संवेदनशीलता को और कमज़ोर किया है। समाज में मानसिक स्वास्थ्य अभी भी टैबू रहा है—अक्सर इसे आलस्य, कमजोरी या "दिमागी बिछड़ापन" समझा जाता है।
जो लोग मदद चाहते हैं, वे अक्सर सहायता नहीं पा पाते—खर्च, ज्ञान की कमी और सामाजिक कलंक (स्टिग्मा) उन्हें रोकते हैं।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
लगातार तनाव, याददाश्त में कमजोरी, ध्यान केंद्रित न कर पाना, छोटी बातों पर अत्यधिक प्रतिक्रियाएँ—ये डिसऑर्डर के संकेत हो सकते हैं, जैसे अवसाद, एंग्जायटी, मूड डिसऑर्डर, आदि।
अगर ये संकेत अनदेखे रहे, तो परिस्थितियाँ गंभीर मानसिक विकारों जैसे स्किज़ोफ्रेनिया या बायपोलर डिसऑर्डर तक पहुँच सकती हैं।
मानसिक (मानसिक-स्वास्थ्य संबंधी) दृष्टिकोण
डिजिटल दुनिया—जैसे अत्यधिक स्क्रीन टाइम, सोशल मीडिया पर 'परफेक्शन' की लत और 24×7 इंटरनेट—हमारी भावनात्मक स्थिरता को कमजोर कर रहे हैं। यह डोपामिन निर्भरता और भावनात्मक डिस्कनेक्ट की ओर ले जाता है।
चैटबॉट्स जैसे डिजिटल टूल्स थोड़ी राहत दे सकते हैं, लेकिन वे क्लिनिकल थेरैपी का विकल्प नहीं हो सकते—वे अक्सर सरलीकृत सलाह देते हैं और थैरेपिस्ट का मानवीय संवेदनशील दृष्टिकोण नहीं अपनाते।
समाधान की ओर कदम
1. थेरेपी को सामान्य बनाएं—किसी मनोचिकित्सक या थेरेपिस्ट से बात करना बायोलॉजिकल डॉक्टर से मिलने जैसा होना चाहिए, बिना शर्म या डर के।
2. नई तकनीकों और हेल्पलाइनों का विस्तार करें—Tele-MANAS, KIRAN हेल्पलाइन, डिजिटल थेरापी प्लेटफ़ॉर्म्स को मजबूत बनाना आवश्यक है।
3. शिक्षा संस्थानों में समर्थन बढ़ाएं—करियर मार्गदर्शन, भावनात्मक सहायता और लाइफ-स्किल्स की शिक्षा जरूरी है।
4. कार्यस्थल में कल्याण बढ़ाएं—बर्न-आउट से बचने के लिए वर्क-लाइफ़ बैलेंस, मेंटल हेल्थ पॉलिसी अपनाएँ।
5. सामाजिक समझ बढ़ाएं—स्टिग्मा को कम करने के लिए सेलेब्रिटीज जैसे दीपिका पादुकोण ने जो पहल की है, उसे आगे बढ़ाना चाहिए।
6. नीति को सशक्त बनाएं—Mental Healthcare Act 2017, NMHP, Ayushman Bharat जैसे क़ानूनी और स्वास्थ्य पहलों को प्रभावी रूप से लागू करने की जरूरत है।
मानसिक स्वास्थ्य अब कोई दूर की समस्या नहीं—यह हर घर, हर व्यक्ति और हर वर्ग की वास्तविकता बन चुकी है। तभी तो हर दूसरी भारतीय महसूस कर सकता है कि ज़िंदगी में कोई मानसिक उलझन है—और यह उलझन चुपचाप बढ़ती जा रही है। हमें अब यह मानना होगा:
यह कमज़ोरी नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनशीलता की पहचान है।
हमारी समाज, परिवार और नीति-निर्माण तंत्र को इसके प्रति जागरूक और संवेदनशील होना होगा, नहीं तो आने वाला दशक परिवार और राष्ट्र दोनों के लिए मानसिक संकट साबित होगा।
इस चुप्पी को तोड़ने की ज़रूरत है—वह चुप्पी जो सबसे खतरनाक होती है।