हिंदी: जनभाषा से राष्ट्रभाषा तक की अधूरी यात्रा
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
हिंदी : जनभाषा से राष्ट्रभाषा तक की अधूरी यात्राहिंदी हमारी धमनियों में बहती जीवन-धारा है। यह केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्रीय आत्मा की अभिव्यक्ति है। हिंदी वह भाषा है जिसमें माँ lullaby गाती है, किसान खेतों में गीत गाता है और कवि राष्ट्र की गाथा लिखता है। फिर भी यह त्रासद विडंबना है कि वही हिंदी अपने ही घर में उपेक्षित रह गई है।
इतिहास और संविधान का संकल्प
भारत के स्वतंत्र होने के बाद प्रश्न उठा—हमारी राष्ट्रभाषा कौन होगी? संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा का दर्जा दिया। अनुच्छेद 343 में स्पष्ट कहा गया कि 15 वर्षों के भीतर अंग्रेज़ी का स्थान हिंदी ले लेगी। यही दिन बाद में हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
महात्मा गांधी ने कहा था— “हिंदी ही वह कड़ी है जो पूरे भारत को एक सूत्र में बाँध सकती है।”
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी स्पष्ट किया था कि बिना एक साझा भाषा के राष्ट्र अधूरा रहेगा।
परंतु आज, 75 वर्षों बाद भी, हिंदी का संघर्ष अधूरा है। प्रशासन, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा और विज्ञान—इन सभी क्षेत्रों में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बना हुआ है। संविधान का सपना कागज़ पर ही रह गया।
सभ्यता के द्वार पर हिंदी की प्रतीक्षा
हिंदी आज भी "जनभाषा" है, लेकिन "राष्ट्रभाषा" नहीं। गाँवों और गलियों में हिंदी की आत्मा जीवित है, लेकिन विश्वविद्यालयों, कॉर्पोरेट बोर्डरूम और न्यायालयों में अंग्रेज़ी ही प्रतिष्ठा का प्रतीक मानी जाती है।
वर्तमान परिदृश्य यह है कि माता-पिता अपने बच्चों को हिंदी माध्यम में पढ़ाने से हिचकते हैं, क्योंकि नौकरी और उच्च शिक्षा का मार्ग अंग्रेज़ी से होकर जाता है।
यह मानसिकता हिंदी की सबसे बड़ी चुनौती है—अपनों की ही उपेक्षा।
तकनीक और हिंदी : नई संभावनाएँ
फिर भी, हिंदी का भविष्य निराशाजनक नहीं है। डिजिटल युग ने हिंदी को नया पंख दिया है।
सोशल मीडिया पर हिंदी सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में गिनी जा रही है।
गूगल और अन्य तकनीकी कंपनियाँ हिंदी सर्च, हिंदी वॉइस कमांड और हिंदी अनुवाद सेवाओं में निवेश कर रही हैं।
हिंदी ब्लॉगिंग, यूट्यूब चैनल और पॉडकास्ट ने करोड़ों श्रोताओं तक पहुँच बनायी है।
आज हिंदी साहित्य केवल पुस्तकों में नहीं, बल्कि Kindle, Audiobook और Online Platform पर भी लोकप्रिय हो रहा है।
यानी, जहाँ अंग्रेज़ी का वर्चस्व शिक्षा और प्रशासन में है, वहीं तकनीक ने हिंदी को जनमानस से जोड़कर नया जीवन दिया है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य
हिंदी केवल भारत तक सीमित नहीं। विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है हिंदी। फ़िजी, मॉरीशस, त्रिनिदाद, सूरीनाम, नेपाल और खाड़ी देशों में हिंदीभाषियों की बड़ी संख्या है। लेकिन विडंबना यह है कि जहाँ विदेशी विश्वविद्यालय हिंदी सीखने में रुचि दिखा रहे हैं, वहीं भारत में ही हिंदी की प्रतिष्ठा को लेकर हीनभावना दिखाई देती है।
भविष्य की राह
समस्या भाषा की नहीं, मानसिकता की है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि अंग्रेज़ी का ज्ञान आवश्यक है, लेकिन हिंदी की उपेक्षा घातक है। यदि हिंदी को केवल “त्योहारों की भाषा” या “भावुकता की भाषा” बनाकर छोड़ दिया गया, तो यह हमारी सांस्कृतिक जड़ों को खोखला कर देगा।
अब समय है कि—
शिक्षा की प्राथमिक और माध्यमिक धारा हिंदी में मज़बूत बने।
विज्ञान और तकनीकी शोध हिंदी में सुलभ हों।
प्रशासनिक और न्यायिक कार्यवाही में हिंदी को वास्तविक प्राथमिकता मिले।
मीडिया और मनोरंजन उद्योग हिंदी को केवल व्यवसाय का साधन न मानें, बल्कि सांस्कृतिक जिम्मेदारी के रूप में भी देखें।
राष्ट्र की परिभाषा तीन स्तंभों पर खड़ी होती है—संप्रभुता, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रभाषा। हमारे पास संप्रभुता भी है, ध्वज भी है, पर राष्ट्रभाषा का गौरव अधूरा है। हिंदी दिवस केवल औपचारिक उत्सव न रहे, बल्कि संकल्प दिवस बने—जहाँ हम ठानें कि हिंदी को उसका उचित स्थान देंगे।
क्योंकि सच्चाई यही है—
हिंदी है हम, वतन है हिन्दुस्तान हमारा।
जय हिंदी। जय भारत।