जब पढ़ाई कागज़ की कबाड़ बनती है: करो या चुप रहो?
लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला
जब पढ़ाई कागज़ की कबाड़ बनती है: करो या चुप रहो?कहते हैं युवा शक्ति देश का भविष्य है। पर क्या तब भी कहा जा सकता है जब उसी “भविष्य” की 83% हिस्सेदारी बेरोज़गारों में निहित हो? जब पढ़-लिख कर निकले हुए युवा फ्रीलांस रह-रहकर नौकरी की तलाश में भटक रहे हों? 2000 में जिन बेरोज़गारों में माध्यमिक या उससे ऊपर की पढ़ाई रखने वालों का हिस्सा 54.2% था, वह अब बढ़कर (कम-से-कम उपलब्ध सार्वजनिक आँकड़ों के अनुसार) 65.7% तक पहुँच चुका है — और 2025 आते-आते सरकार ने उन आँकड़ों को ही छुपाना मुनासिब समझा।
यह सिर्फ आँकड़ा नहीं, यह एक सामाजिक संकट है: 15–29 आयु वर्ग में बेरोज़गारी लगभग 10.2% है; शहरी युवाओं में यह दर 17.2% तक पहुँचती है। और सबसे शर्मनाक—पढ़ी-लिखी महिलाओं की बेरोज़गारी पुरुषों से कहीं अधिक है (2022 में लगभग 76.7% बनाम 62.2%)। नारी सशक्तिकरण के ढोलकिए भाषणों के बीच यह असलियत खुद को चिल्ला-चिल्ला कर बता रही है कि ‘नारी सशक्तिकरण’ सिर्फ़ कार्यक्रमों और स्लोगनों तक सीमित रह गया है।
फिर आश्चर्य किस बात का कि प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक, पोस्टपोनमेंट और बार-बार रद्दीकरण की घटनाएँ सामने आती हैं? क्यों परीक्षाओं का माहौल अस्थिर है? क्योंकि राज्य का तन्त्र — जो नौकरी देने की गारंटी नहीं दे पा रहा — स्वयं उस प्रणाली को प्रभावित कर देता है जो युवाओं को रोज़गार की उम्मीद देती है। जब बेरोज़गारी का कोई दीर्घकालिक मॉडल न हो, तो परीक्षाओं का महत्व नाटक बन जाता है; और इसी नाटक में पेपर लीक और पोस्टपोनमेंट जैसे उपकरण उपयोगी हथियार बन कर सामने आते हैं — ताकि जनता की निगाहें असली समस्या से भटकें।
कौशल विकास और प्रशिक्षण योजनाएँ, जैसे पीएम कौशल विकास योजना, लाखों लोगों को प्रशिक्षण देने का वादा करती हैं। पर धरातल पर फायदा किसे मिलता है? रूबरू आँकड़े बताते हैं—प्रशिक्षितों में से मुश्किल से 15% को ही वास्तविक रोजगार मिलता है। बाकी सब ‘प्रमाण-पत्र’ के साथ घूमते रहते हैं—पोस्टर, प्रेस-रिलीज़ और फोटो-ऑप के लिए उपयोगी।
युवा वर्ग को जो कहा जाता है—“ध्यान लगाओ, योग करो, राष्ट्रगान गाओ”—वो तब तक उपदेश है जब तक पेट भरा है और जेब में पैसा है। भूख और असुरक्षा के सामने मंत्रोच्चारण विकल्प नहीं बल्कि तुच्छता है। और जब तुम सड़क पर बैठते हो, तुम पर लाठियाँ बरसती हैं, आंसू गैस छोड़ी जाती है, मुक़दमे दायर होते हैं—याद रखो यह तुम्हारी गलती नहीं है; यह सिस्टम का चेहरा है। यह वही चेहरा है जो सवाल उठाने वालों को डराने-धमकाने और न जाने किस-किस दायरे में घसीटने की कला जानता है।
पर आँसू, तख़्ती या वॉइस-नोट ही हल नहीं हैं। विरोध का अर्थ केवल सड़क पर बैठना नहीं, बल्कि उस व्यवस्था को लक्षित करके खड़ा होना है जिसने पढ़ाई को कागज़ी अवशेष बना दिया है—वह नीति, वह भ्रष्टाचार, वह चुनावी गणित और वह आर्थिक मॉडल जो नौकरियों का निर्माण नहीं कर पाता।
# क्या करें? — कुछ ठोस सुझाव (नागरिक-दृष्टि से)
1. संगठित माँगें, प्रणालीगत माँगें — सिर्फ़ हंगामा नहीं; रोजगार सृजन का रोडमैप, सार्वजनिक आँकड़ों की पारदर्शिता, और प्रशिक्षु-से-रोज़गार ट्रैकिंग की माँग।
2. लोकल असेंबलीज़ और युवा रिपोर्ट कार्ड — हर जिले में युवा-आधारित ‘रोज़गार रिपोर्ट कार्ड’ बनें जो सरकारी दावों का स्वतंत्र सत्यापन करें।
3. न्यायिक-लोकपाल निगरानी — परीक्षा-प्रशासन और भर्ती प्रक्रिया पर न्यायिक या स्वतंत्र लोकपाल-कमीशन की अनिवार्यता।
4. स्टार्ट-अप और रोजगार-फ्रेंडली नीतियाँ नहीं, बल्कि ठोस निवेश — कौशल को वास्तविक उद्योगों के साथ बंधें; केवल ट्रेनिंग प्रदाता नहीं बनें।
5. महिला रोजगार के लक्ष्यों के लिए विशेष कोटा और समर्थन — सरकारी नौकरियों व निजी उद्योगों में महिलाओं के लिए न केवल वादे, बल्कि लक्ष्यों और निगरानी की आवश्यकता है।
# अंतिम चेतावनी और बुलंद निष्कर्ष
इतिहास बताता है कि सत्ता अपना हाथ तबतक नहीं छोड़ती जबतक उसे मजबूर न किया जाए। पर यह भी सच है कि जब भीड़ केवल प्रदर्शन बन कर रह जाती है, उसे कुचल देना आसान होता है; जब वही भीड़ प्रश्न बनकर खड़ी हो जाती है—तो उसे कोई रोक नहीं सकता।
युवा—तुम्हारा भविष्य चुप्पी और तालियों के बीच नहीं, सवाल उठाने में है। मत भूलो: जो भविष्य अपनी नाप-तौल खुद नहीं करेगा, वह किसी के झूठे वादों का गुलाम बनेगा।
“अगर पढ़ाई से नौकरी नहीं मिलती — तो नारे बोलना ही पर्याप्त नहीं; सवाल उठाओ, माँग बनाओ, सिस्टम बदलो। वरना कल की डिग्री आज की रोज़गारहीनता की शोक-सूची बनकर रह जाएगी।”