कक्षा से मंच तक—क्या यही है “सबका विकास”?

 लखनऊ  डेस्क प्रदीप शुक्ला 

कक्षा से मंच तक—क्या यही है “सबका विकास”?

पूर्णिया, बिहार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के लिए प्रशासनिक आदेश जारी हुआ है। आदेश कहता है कि 200 बसों में जीविका दीदियों को सुरक्षित लाने-ले जाने की जिम्मेदारी शिक्षकों पर होगी।

यानी शिक्षक अब बच्चों को ज्ञान देने के बजाय बसों में भीड़ पहुँचाने का इंतज़ाम करेंगे।

यह सिर्फ़ एक रैली नहीं, यह एक आईना है—जिसमें साफ़ दिख रहा है कि सत्ता की प्राथमिकताओं में जनता पीछे है, और प्रदर्शन आगे।

"अगर शिक्षा को कुर्बान कर भीड़ चाहिए, तो फिर विकास नहीं, केवल ताली और तमाशा बचेगा।"

👉 शिक्षा बनाम सत्ता का खेल

बिहार की शिक्षा व्यवस्था पहले से ही गंभीर संकट में है।

  • यूनिसेफ और एनसीईआरटी की रिपोर्टें बताती हैं कि बिहार के बच्चों का सीखने का स्तर राष्ट्रीय औसत से बहुत नीचे है।
  •  शिक्षक संख्या की भारी कमी है।
  •  बुनियादी ढाँचा जर्जर है—न डेस्क, न बेंच, न लैब।

ऐसे हालात में शिक्षकों को रैली की ड्यूटी पर भेजना बच्चों के भविष्य के साथ एक संगठित खिलवाड़ है। यह मानना होगा कि सत्ता की प्राथमिकताओं की सूची में शिक्षा कहीं बहुत पीछे है।

👉 प्रशासन की निष्पक्षता पर धब्बा

संविधान कहता है कि सरकारी कर्मचारी “जनता की सेवा” के लिए हैं, किसी नेता की रैली सजाने के लिए नहीं।

जब शिक्षक, जिन्हें “राष्ट्र निर्माता” कहा जाता है, राजनीतिक भीड़ जुटाने का औज़ार बना दिए जाएँ, तो यह केवल प्रशासनिक मर्यादा का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों का भी अपमान है।

आज यदि प्रशासन रैली की भीड़ के लिए शिक्षक भेज सकता है, तो कल मतदान केंद्र पर भीड़ जुटाने या राजनीतिक कार्यों में भी मजबूर कर सकता है। यह एक ख़तरनाक उदाहरण है।

👉 अंधभक्ति और दोहराव की राजनीति

कुछ लोग तुरन्त कहेंगे—“पिछली सरकारें भी यही करती थीं।” लेकिन सवाल यही है—तो फिर फर्क कहाँ है?

क्या नरेंद्र मोदी ने खुद को उन्हीं से अलग बताकर सत्ता में आने का दावा नहीं किया था?

क्या “सबका साथ, सबका विकास” का नारा सिर्फ़ भाषणों तक सीमित रह जाएगा, और असल में वही पुरानी राजनीति—भीड़ जुटाओ, तालियाँ बजवाओ, पोस्टर सजाओ?

सबसे खतरनाक है यह मानसिकता कि “हमारा नेता जो करे, वही सही है।” यह अंधभक्ति लोकतंत्र को कमजोर करती है, क्योंकि इससे सत्ता जवाबदेह नहीं रहती। सवाल उठाने पर तर्क नहीं, बल्कि तर्कहीन बचाव मिलता है।

👉 असली सवाल और भविष्य की तस्वीर

जब शिक्षक रैली में भीड़ गिनेंगे, तब बच्चों को कौन पढ़ाएगा?

जब किताबें किनारे रख दी जाएँगी और बसों की जिम्मेदारी थमा दी जाएगी, तो आने वाली पीढ़ी मजदूरी और मजबूरी दोनों में ही फँसेगी।

यह न केवल शिक्षा का नुकसान है, बल्कि बिहार के विकास की रीढ़ तोड़ने जैसा कदम है।

सच्चाई यह है कि राजनीतिक आयोजनों की चमक-दमक में जनता की ज़रूरतें अंधेरे में धकेल दी जाती हैं। मंच पर विकास के वादे गूँजते हैं, लेकिन ज़मीन पर बच्चे बिना पढ़ाई के रह जाते हैं।

यह मामला सिर्फ़ एक रैली का नहीं है। यह उस सोच का प्रतीक है जिसमें सत्ता को सेवा नहीं, बल्कि प्रदर्शन माना जाता है।

अगर शिक्षा को कुर्बान कर भीड़ जुटाई जाएगी, तो फिर यह समझ लेना चाहिए कि विकास सिर्फ़ मंच की रोशनी में है, ज़मीन पर नहीं; क्योंकि जब कक्षा खाली होगी और मंच भरेगा, तो देश की असली ताक़त—उसका भविष्य—कमज़ोर होगा।