“जनता का मौन, सत्ता का नशा और मीडिया की दोगली चौपाल”।

 व्यूरो

“जनता का मौन, सत्ता का नशा और मीडिया की दोगली चौपाल”

भारत आज एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां लोकतंत्र की परिभाषा और उसकी वास्तविकता के बीच की खाई हर दिन चौड़ी होती जा रही है। हमारे नेताओं और नौकरशाहों के बच्चों के ऐशो-आराम, विदेश शिक्षा और कॉरपोरेट पदों पर आसीन होने की कहानियां सोशल मीडिया पर खूब तैरती हैं। लेकिन आम युवा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे बस वही झंडा थमा दिया जाता है जो सत्ता चाहती है, और वह पूरे जोश में उसे लेकर सड़कों पर निकल पड़ता है—बिना यह पूछे कि आखिर यह झंडा उसके असली मुद्दों से कितना जुड़ा है।

 आर्थिक लूट का ‘साइलेंट मोड’

देश की महिलाएं पारंपरिक रूप से जागरूक और गृह अर्थव्यवस्था की धुरी मानी जाती हैं। लेकिन क्या उन्हें यह अहसास है कि उनकी रसोई पर चुपचाप डाका डाला जा चुका है? रसोई गैस की सब्सिडी पहले डीबीटी के नाम पर खातों में भेजी गई, फिर धीरे-धीरे बिना किसी सार्वजनिक घोषणा के बंद कर दी गई। यही नहीं, किसानों के ‘कृषि कार्ड’ पर मिलने वाले लाभों में भी इसी तरह की कटौती शुरू हो चुकी है—बिना संसद में बहस, बिना मीडिया में सुर्खियों के।

 रोजगार—अधूरा सपना

मीडिया और सत्ता की मिलीभगत ने यह सवाल ही गायब कर दिया है कि देश में सरकारी नौकरियां कितनी हैं, और प्राइवेट सेक्टर में सैलरी और कार्य-शर्तें कैसी हैं। जिस देश के करोड़ों युवा ‘जॉब सिक्योरिटी’ के लिए संघर्ष कर रहे हों, वहां बेरोजगारी के सवाल को “नेशनल सिक्योरिटी” या “धार्मिक गौरव” की बहसों में डुबो देना एक सुनियोजित एजेंडा है।

 मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दबाव

आज का माहौल ऐसा है कि लोग बेरोजगारी, महंगाई और अन्याय से तंग आकर आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन खुलकर विरोध नहीं कर पाते। जो 2-4% लोग साहस जुटाकर सत्ता के खिलाफ आवाज उठाते हैं, उन्हें भी मूर्ख, देशद्रोही या ‘नेरेटिव डिस्टर्बर’ कहा जाता है। यह ‘सोशल साइलेंस’ एक मनोवैज्ञानिक महामारी बन चुका है, जो लोकतंत्र की सबसे बड़ी हत्या है।

 राजनीतिक और संवैधानिक संकट

लोकतंत्र का सार यह है कि जनता सवाल पूछे और सत्ता जवाब दे। लेकिन आज संवैधानिक संस्थान—चाहे वह चुनाव आयोग हो, संसद हो या मीडिया—अपनी स्वतंत्रता खोते जा रहे हैं। संवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality) का स्थान ‘सत्तामुखी निष्ठा’ (Loyalty to the Regime) ने ले लिया है। नीतियां पारदर्शिता और जनहित के बजाय चुनावी लाभ और पूंजीगत दबावों के आधार पर बन रही हैं।

 मीडिया—जनता का चौथा स्तंभ या सत्ता का चौकीदार?

मीडिया आज या तो सत्ता की चमचागीरी में लिप्त है या फिर फर्जी बहसों में जनता को उलझाने में। ‘मीडिया ट्रायल’ अब अपराधियों के खिलाफ नहीं, बल्कि असहमति जताने वालों के खिलाफ हो रहा है। जहां सत्ता को घेरने वाले मुद्दों पर चुप्पी है, वहीं जनता को बांटने वाले मुद्दों पर 24x7 शोर।

 नैतिक सवाल

क्या लोकतंत्र का अर्थ यही है कि जनता अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहकर सत्ता के हर अन्याय को ‘राष्ट्रभक्ति’ के आवरण में स्वीकार करे? क्या चुप रहना, सच को नकारना और अन्याय को सहना, आने वाली पीढ़ियों के साथ विश्वासघात नहीं है?

जब जनता अपने असली मुद्दों—रोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा—को भूलकर केवल वही एजेंडा अपनाती है जो सत्ता देती है, तो यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि ‘भीड़-तंत्र’ बन जाता है। इतिहास गवाह है, जब भी जनता ने अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता दिखाई, तब तब सत्ता ने उसके हिस्से की आज़ादी और संसाधन दोनों हड़प लिए।

अब सवाल यह है—हम किस ओर जाना चाहते हैं? एक जागरूक लोकतंत्र की ओर या एक आत्ममुग्ध सत्ता-राज्य की ओर, जहां मीडिया केवल सत्ता की ताली बजाए और जनता केवल नारों में जीए?