जब अर्थशास्त्री चेतावनी दें — G20 से उम्मीद और दुनिया की असमानता का कठिन-मामला

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


“जब अर्थशास्त्री चेतावनी दें — G20 से उम्मीद और दुनिया की असमानता का कठिन-मामला”

पिछले दिनों 500 से अधिक प्रमुख अर्थशास्त्रियों, टैक्स विशेषज्ञों और समाज-वैज्ञानिकों ने एक साहसिक सार्वजनिक अपील की — G20 नेताओं से एक स्थायी, स्वतंत्र और वैज्ञानिक पैनल स्थापित करने की माँग, जिसका एकमात्र काम होगा वैश्विक असमानता को नापना, उसकी जड़ों की खोज करना और वैधानिक-नीतिगत उपाय सुझाना। यह नारा केवल शिष्ट-आशा नहीं; यह एक आपात-संकट की घंटी है। 

विश्व के सामने जो तथ्य खड़ा है वह चौंकाने वाला है: 2000 से 2024 के बीच उत्पन्न हुई नई संपत्ति का 41 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ़ शीर्ष 1 प्रतिशत के पास गया, जबकि नीचे के आधे हिस्से को मात्र 1 प्रतिशत मिला। यही आँकड़ा अकेले बताता है कि असमानता अब मात्र उधार-खाता का सवाल नहीं बल्कि लोकतंत्र और सामाजिक स्थिरता का प्रश्न बन चुकी है।

असमानता की यह तीव्रता केवल धन के वितरण का सवाल नहीं है। दुनिया के 2.3 अरब लोगों की खाद्य-सुरक्षा पर संकट, बढ़ती राजनीतिक ध्रुवीकरण, सार्वजनिक संस्थाओं पर भरोसे का क्षरण और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की संवेदनशीलता—ये सभी संकेत एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। असमानता का यही जाल वह मिट्टी है जिसमें सामाजिक अस्थिरता, अतिवाद और राजनीतिक अपक्षय पनपते हैं।

इसी पृष्ठभूमि पर पेश किया गया प्रस्ताव — ‘इंटरनेशनल पैनल ऑन इनएक्वालिटी’ (IPI) — अचूक औजार की तरह दिखता है। इसे IPCC (जलवायु परिवर्तन पैनल) की तरह डिज़ाइन करने का प्रस्ताव इसलिए हुआ है ताकि देश-विशेष और क्षेत्रीय-स्तर पर ठोस, सहमति-आधारित व्यावहारिक नीतियाँ निकल सकें। विचार यह है कि वैज्ञानिक प्रमाण, तुलनात्मक आँकड़े और नीतिगत विकल्पों का व्यवस्थित समन्वय दुनिया को असमानता के खिलाफ वास्तविक कार्रवाई के लिए प्रेरित कर सके।

यह चर्चा इस समय इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि G20 शिखर सम्मेलन—जो पहली बार अफ्रीका में हो रहा है—एक प्रतीकात्मक अवसर है। मेज़बान दक्षिण अफ्रीका ने सम्मेलन के एजेंडे में ‘समानता’ और ‘स्थिरता’ को प्रमुखता दी है—यह चुनौतियाँ वहाँ विशेषतः तीव्र हैं, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका दुनिया के असमानतम देशों में से एक है। पर राजनीतिक व्यवहार अलग-अलग: अमेरिका की तरफ़ से विवादास्पद आपत्तियाँ और यहां तक कि एक उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल न भेजने जैसी घटनाएँ इस मंच की वैश्विक एकता को जाँच में डालती हैं।

तो क्या यह सिर्फ़ एक ‘विद्वानों की शोरगुल’ है या वास्तविक राजनीति बन सकती है? सवाल का उत्तर मिश्रित है — विशेषज्ञों की आवाज़ महत्वपूर्ण है, पर राजनीति में तब तक बदलाव अस्थायी रहता है जब तक शक्तिशाली देशों के हितों और घरेलू राजनीतिक तंत्र IPI जैसे प्रस्ताव का समर्थन करना स्वीकार न करें। पर फिर भी—इन्हें हल्के में लेना दुनिया के लिए खतरनाक होगा। नीतिगत-शोध और वैश्विक निगरानी-मैकेनिज़्म ने ही पिछले दशकों में कई जनहित के संकेत दिए हैं—अब जब प्रमाण स्पष्ट हैं, तब बहु-देशीय गठजोड़, कर-निगरानी, संपत्ति-रजिस्टर और अंतरराष्ट्रीय टैक्स-नियमों में सुधार जैसे कदम वास्तविक हथियार बन सकते हैं। 

व्यापक राजनीतिक संदेश भी साफ़ है। विकसित देशों में भी असमानता के असर — लोकतांत्रिक विकल्पों का झुकना, सत्तावादी प्रवृतियों का उभार, मध्यम वर्ग का कटाव — दिख रहा है। इसलिए यह अंतरराष्ट्रीय मामला है और राष्ट्रीय नीतियाँ (कराधान, सामाजिक सुरक्षा, सार्वजनिक संपत्ति, शिक्षा-स्वास्थ्य निवेश) केवल आंशिक समाधान होंगी। वैश्विक पूँजी-प्रवाह, टैक्स-हवेन, और डिजिटल अर्थव्यवस्था के नियमों में सुधार के बिना घरेलू सुधारों की शक्ति सीमित रहेगी। 

 अंततः क्या करना चाहिए? संक्षेप में कुछ तर्कसंगत कदम:

1. G20/UN के स्तर पर IPI का गठन—डेटा-ड्रिवन, स्वतंत्र और पारदर्शी।

2. वैश्विक टैक्स-फेयरनेस: बहीखाता-पारदर्शिता, बहुराष्ट्रीय कराधान का पुनर्रचना, संपत्ति-रजिस्टर।

3. विकसित और विकासशील देशों में सार्वजनिक निवेश पर पुन: जोर—स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा। 

4. वैश्विक असमानता पर नियमित रिपोर्टिंग और देशों के लिए लक्ष्यों का निर्धारण, ताकि कार्रवाई नीतिगत रूप से ट्रैक की जा सके।

जब अर्थशास्त्रियों की दुनिया एक मुखर चेतावनी दे, तो न केवल आंकड़े सुनने योग्य होते हैं — समय की मांग होती है कि राजनीति, नीतिशास्त्र और वैश्विक संस्थाएँ सुनें और काम करें। असमानता केवल आर्थिक समस्या नहीं; वह हमारे लोकतंत्र और मानव गरिमा की परीक्षा है। यदि G20 और उसके सदस्य देश इस परीक्षा में विफल हुए, तो विश्व-व्यवस्था और राजनीतिक स्थिरता दोनों पर इसका भुगतान हमें कई दशकों तक उठाना पड़ सकता है।