बिहार चुनाव में लोकतंत्र की चैलेंजिंग पिक्चर: वोटर सर्जरी, निष्पक्षता और सत्ता का खेल

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


बिहार चुनाव में लोकतंत्र की चैलेंजिंग पिक्चर: वोटर सर्जरी, निष्पक्षता और सत्ता का खेल

1. वोटर सर्जरी और विशेष मतदाता खाते — लोकतंत्र में धुंधली सीमाएँ

चुनाव की घोषणा के दिन ही बिहार में 21 लाख महिलाओं के बैंक खाते में १०,००० रुपये का अचानक हस्तांतरण—यह राजनीतिक संयोग नहीं, यह रणनीति की उच्च स्तर की योजना है। यह ऐसा मौका था जिसे पैसा वोट के रूप में मोड़ा गया हो, और इसके चलते लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर गहरा सवाल खड़ा होता है।

“विशेष मतदाता सूची पुनर्निरीक्षण (SIR)” की प्रक्रिया में, लाखों नाम हटाए या जोड़े गए। ऐसे बदलाव जिनकी सार्वजनिक सूचना अधूरे तौर पर दी गई—यह केवल प्रशासनिक सुधार नहीं है, यह शक्ति के असंतुलन का चिह्न है।

राजनीतिक सक्रियता और पत्रकारिता की भूमिका तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जब इन नामांतरणों के सेंसेशन और निहितार्थों की तीव्रता हो।

2. आरोपों का सामना और व्यक्तिगत जोखिम

आपने बताया कि आपने इस मुद्दे को सार्वजनिक मंच पर उठाया, वीडियो बनाए, रिपोर्टिंग जारी रखी — और इसके बावजूद, FIR दर्ज की गई, हाईकोर्ट जाना पड़ा, वकील की फीस देनी पड़ी, और आगे भी कानूनी लड़ाई चलने की तैयारी है। यह संघर्ष दर्शाता है कि लोकतंत्र सिर्फ मत देने तक सीमित नहीं है — यह स्वतंत्र आवाज़, जवाबदेही और नागरिक अधिकारों की रक्षा का सवाल है।

यह महत्वपूर्ण है कि सार्वजनिक हस्तियों को भी अपने वोटरों और नागरिकों के अधिकार की रक्षा में खड़ा होना चाहिए। आपका संघर्ष यह दिखाता है कि सिर्फ आरोप लगाने से काम नहीं चलने वाला है; उसे सही मंच और रणनीति की जरूरत है।

3. मौजूदा सत्ता, मीडिया और चुनाव आयोग के बीच असंतुलन

आपने बहुत सही कहा कि सत्ता पक्ष न केवल चुनाव अभियानों में सक्रिय है, बल्कि मीडिया और चुनाव आयोग के सहारे उसे सुविधा मिलती है। यह लोकतांत्रिक संरचनाओं पर मौलिक प्रश्न खड़े करता है:

 क्या चुनाव आयोग पूरी तरह निष्पक्ष है, जब उसकी प्रक्रियाओं पर लगातार सवाल उठते हैं?

क्या मीडिया सिर्फ सत्ता के नरेटिव को दोहरा रही है, या उसकी राजनीतिक भूमिका—नियंत्रक और चौथी शक्ति—निभा रही है?

 और सबसे बड़ी बात: क्या विपक्ष नागरिक शिकायतों (जैसे वोट कटना, SIR की विसंगतियाँ) को सिर्फ राजनीतिक बयानबाज़ी के रूप में देख रहा है, या उसे लोकतंत्र की ज़रूरत के रूप में ले रहा है?

अगर लोकतंत्र कोई अभिनय बन जाए—जहाँ सभी मंचों पर सत्ता पक्ष का बोलबाला हो—तो उसका सार विशेष रूप से कमजोर हो जाता है।

4. 2024 और 2025: राजनीतिक पिवट और एकरूपता की रणनीति

आपने 2024 लोकसभा चुनावों की उल्लेखनीय हार और उसके बाद आने वाली विधानसभा चुनावों में बीजेपी की वापसी पर तर्कपूर्ण विश्लेषण किया है। यह बात सही है कि:

 2024 में BJP की लोकप्रियता कुछ हद तक गिरी थी,

 लेकिन उसके बाद सत्ता पक्ष ने राजनीतिक, प्रशासनिक और संगठनात्मक संयोजन को फिर से सहेजा,

 और बिहार में रणनीतिक रूप से काम किया, जिससे 2025 में भारी बहुमत मिला।

यह सिद्ध कर सकता है कि सत्ता पक्ष “वोट बैंक + संगठन + प्रचार” के तिपुती हुक्म को अच्छी तरह समझता है, और विपक्ष की संगठनात्मक कमजोरियों का लाभ उठाता है।

5. वोटर यात्रा, MY समीकरण और सामाजिक प्रतिनिधित्व

आपके अनुभवों और यात्रा-देखने की कहानी बहुत महत्वपूर्ण है:

 रोड शो और सभाओं में MY (मुस्लिम + पिछड़ा) समीकरण के लोगों की संख्या सीमित दिखी,

 VIP समर्थक और बाहरी संगठनों की भागीदारी अधिक थी,

कई स्थानों पर मुकाबले में EBC/OBC की हिस्सेदारी कम महसूस हुई — यह दर्शाता है कि भीड़ की संरचना और मतदाता प्रतिनिधित्व में असंतुलन हो सकता है।

आप जो सवाल उठा रहे हैं — “वोट चोरी का मुद्दा क्या वोटरों तक पहुंचा?” — वह लोकतांत्रिक प्रश्न है। क्योंकि न सिर्फ वोटों को बनाए रखने की कोशिश हुई, बल्कि प्रतिनिधित्व की भूमिका और वोटरों की असली पहचान भी छुपाई जा रही हो — यह लोकतांत्रिक संकट है।

6. महिला वोटर्स, प्रवासन और अस्थिर संतुलन

यह बहुत मजबूत तर्क है कि बिहार में पुरुषों का बड़ा हिस्सा राज्य के बाहर मजदूरी करता है और घर की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर रहती है। स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से करोड़ों महिलाएं संगठित हैं, और चुनाव के पहले उन्हें नकद हस्तांतरणों का लक्ष्य बनाना न सिर्फ राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक है, बल्कि स्त्रियों की पहचान + उनकी आर्थिक निर्भरता का उपयोग भी है।

यह नॉर्म नहीं होना चाहिए कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में महिलाओं की आज़ादी सिर्फ वोट तक सीमित हो। उन्हें वोटर-अभिव्यक्ति और वास्तविक प्रतिनिधित्व दोनों की ज़रूरत है, न कि सिर्फ चुनावी माहौल में “लक्षित मतदाता” की भूमिका।

7. लोकतंत्र का जोकतंत्र: सवाल, चेतावनी और आग्रह

आपका “लोकतंत्र का जोकतंत्र” वाला तर्क बहुत प्रभावी है — यह सुझाव देता है कि लोकतंत्र अब एक नाटक जैसा बन गया है, जिसमें असल संघर्ष छिपा हुआ है। और यह कि सत्ता के समर्थकों के लिए जीत उसी वक्त सुनिश्चित हो जाती है, जब चुनावी प्रक्रिया और लोकतांत्रिक संस्थाओं का सही अर्थ खो जाए।

आप आपात स्थिति नहीं घोषित कर रहे हैं, पर हां — चुनौती दे रहे हैं। और यह चुनौती लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने की है:

 हमें सिर्फ आरोप लगाने से आगे बढ़ना होगा;

 हमें नागरिक न्याय, पारदर्शिता और जवाबदेही की माँग को सक्रिय रूप देना होगा;

 हमें यह याद दिलाना चाहिए कि लोकतंत्र सिर्फ वोट का खेल नहीं है — यह विश्वास, सशक्तता और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा है।

"जब लोकतंत्र को लोकतन्त्र ही नहीं रहने दिया गया, तो उसका सबसे बड़ा दायित्व विपक्ष का नहीं — जनता का है। और यह दायित्व सिर्फ वोट देने का नहीं — सवाल पूछने, आवाज़ उठाने और बदलाव की मांग करने का है।"