मीडिया की चुप्पी और मनोज गौड़ की गिरफ्तारी: लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक संकेत

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


मीडिया की चुप्पी और मनोज गौड़ की गिरफ्तारी: लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक संकेत

भारत के वित्तीय जगत की सबसे बड़ी खबरों में से एक—जेपी समूह के पूर्व प्रबंध निदेशक मनोज गौड़ की ईडी द्वारा गिरफ्तारी —13 नवंबर 2025 को दिल्ली में हुई। गिरफ्तारी प्रवर्तन निदेशालय की महीनों लंबी जांच का नतीजा थी, जिसमें 14,599 करोड़ रुपये के कथित धन-शोधन, फर्जी भुगतान, ओवर-इनवॉयसिंग और निवेशकों के साथ वित्तीय धोखाधड़ी के ठोस आरोप शामिल हैं।

सवाल यह नहीं है कि गिरफ्तारी क्यों हुई। सवाल यह है कि देश की मुख्यधारा मीडिया ने इस खबर को लगभग क्यों छिपा दिया?

## मामला छोटा नहीं — 14,599 करोड़ का वित्तीय घोटाला और हजारों पीड़ित निवेशक

ईडी ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में साफ बताया है कि:

एनजेसीएल और संबद्ध कंपनियों में वर्षों से वित्तीय अनियमितताएँ चलती रहीं।

 हजारों निवेशकों का पैसा परियोजनाओं से हटाकर असंबंधित खातों और शेल कंपनियों में डायवर्ट किया गया।

कंपनी के वास्तविक वित्तीय स्वास्थ्य को छुपाने के लिए देश-विदेश में धन सर्कुलेट किया गया।

 डिजिटल रिकॉर्ड, लेन-देन और गवाहियों के आधार पर पूर्व एमडी मनोज गौड़ की भूमिका “केंद्रीय” पाई गई।

इतना सब होने पर भी, यह खबर राष्ट्रीय चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनी। न कोई डिबेट, न कोई प्राइम-टाइम चर्चा, न कोई खोजी रिपोर्ट।

## मीडिया की चुप्पी का अर्थ क्या है?

जब 500 करोड़ के राजनीतिक या कॉर्पोरेट विवादों पर मीडिया रात भर शो करता है, तो 14,599 करोड़ के घोटाले में एक टॉप कॉरपोरेट अधिकारी की गिरफ्तारी पर चुप्पी साधना कई प्रश्न उठाती है:

1. क्या कॉर्पोरेट विज्ञापन दबाव एक कारण है?

जेपी समूह देश के बड़े प्रोजेक्ट्स और निर्माण कंपनियों में रहा है। बड़े कॉरपोरेट अक्सर मीडिया की आय का बड़ा हिस्सा होते हैं। क्या यह मामला भी उसी आर्थिक दबाव का उदाहरण है?

2. क्या राजनीतिक समीकरणों ने कवरेज को प्रभावित किया?

रियल एस्टेट और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर अक्सर सत्ता और विपक्ष — दोनों से जुड़े जटिल संबंधों में उलझा रहता है।

क्या बड़े राजनीतिक हितों ने इस खबर को दबा दिया?

3. क्या ‘नियंत्रित नैरेटिव’ का नया दौर शुरू हो गया है?

सवाल यह भी है—क्या देश में अब सिर्फ वही वित्तीय घोटाले दिखाए जा रहे हैं जो राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप हों? बाकी सब फ़ाइलों की तरह दबा दिए जा रहे हैं?

## मौन सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है

भारत की जनता को यह समझना होगा कि "लोकतंत्र में मीडिया का चुप रहना, किसी अपराध के हो जाने से बड़ा अपराध है।"

 जब मीडिया चुप हो जाता है,

  तो सत्य अकेला पड़ जाता है।

 जब मीडिया सवाल नहीं करता,

  तो जवाबदेही खत्म हो जाती है।

 और जब मीडिया कॉरपोरेट या राजनीतिक दबाव में खबरें दबाने लगता है, तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ खोखला हो जाता है।

मनोज गौड़ की गिरफ्तारी सिर्फ एक वित्तीय जांच नहीं—

यह उस बड़ी वास्तविकता का आईना है जिसमें भारत का मीडिया अपनी स्वतंत्रता और साहस दोनों खोता जा रहा है।

## जांच आगे बढ़ेगी, पर क्या मीडिया जागेगा?

ईडी ने स्पष्ट कर दिया है कि:

 जांच अभी जारी है,

और आने वाले दिनों में कई और खुलासे हो सकते हैं।

लेकिन असली सवाल यह है— 

क्या मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाएगा?

क्या वह करोड़ों निवेशकों की आवाज बनेगा?

या फिर बड़े कॉरपोरेट हितों के आगे ऐसे ही चुप रहेगा?

पत्रकारिता का धर्म स्पष्ट है: "सत्ता चाहे कॉरपोरेट की हो या राजनीति की — सवाल पूछना ही पत्रकारिता है।"

आज इस एक मामले में मीडिया की चुप्पी ने लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया है। चाहे ईडी की कार्रवाई सही हो या गलत— "इस पर बहस होना ही लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल तत्व है"; और जब बहस नहीं होती, तो लोकतंत्र सिर्फ काग़ज़ पर बचता है, जनता के जीवन में नहीं।