नकारापन और नैरेटिव का खेल: दिल्ली धमाका, मीडिया का प्रोपेगैंडा और गृह मंत्रालय की विफलता

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


नकारापन और नैरेटिव का खेल: दिल्ली धमाका, मीडिया का प्रोपेगैंडा और गृह मंत्रालय की विफलता

दिल्ली बम धमाके ने देश को दहला दिया, लेकिन इस त्रासदी के बाद मीडिया, सत्ताधारी राजनेताओं और केंद्रीय गृह मंत्रालय का आचरण उस आंतरिक विफलता और राजनीतिक अवसरवाद को उजागर करता है, जिसने राष्ट्रीय सुरक्षा को हाशिये पर धकेल दिया है। जहाँ एक तरफ़ गृह मंत्रालय अपनी जवाबदेही से पलायन कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ मीडिया इस त्रासदी को साम्प्रदायिक विभाजन के लिए ईंधन दे रहा है।

I. मीडिया की करतूतें: संदेह का व्यापार और नैरेटिव का अपहरण

मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस समय चौथा स्तंभ नहीं, बल्कि सत्ता का मुखपत्र बनकर काम कर रहा है। उसकी करतूतें आतंकवाद को राष्ट्रीय सुरक्षा से हटाकर, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह पर केंद्रित कर रही हैं:

 धर्म-विशेष को खलनायक बनाना: बिना किसी आधिकारिक पुष्टि के, मीडिया में यह नैरेटिव स्थापित किया जा रहा है कि 'हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होता है?' दाढ़ी, टोपी, और बुर्का को संदेह के घेरे में डालकर, मीडिया गिरिराज सिंह जैसे नेताओं के घृणास्पद तर्कों को पूरे समाज में प्रसारित कर रहा है। यह आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ने की बेशर्म कोशिश है।

 शिक्षा पर हमला: हिमंता बिस्वा सरमा के बेतुके बयान को प्रमुखता देकर मीडिया यह स्थापित करने का प्रयास कर रहा है कि 'उच्च शिक्षा अब और खतरनाक बनाती है'। मीडिया जानबूझकर इस बात को नज़रअंदाज़ करता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों में भी उच्च शिक्षित, यहाँ तक कि चिकित्सक भी शामिल रहे हैं।

विमर्श का अपहरण: मीडिया का पूरा फोकस अब डॉक्टर उमर या अल-फ़लाह विश्वविद्यालय जैसे 'मुस्लिम किरदारों' पर है। वह जानबूझकर उन बुनियादी सवालों से ध्यान हटा रहा है कि कार का असली मालिक कौन था, आरडीएक्स की पुष्टि हुई या नहीं, और क्या यह हमला वास्तव में किसी चुनावी साजिश का हिस्सा था।

"मीडिया, सच का पर्दाफाश करने के बजाय, राजनीतिक नैरेटिव का पर्दाफाश कर रहा है।"

II. केंद्रीय गृह मंत्रालय का नकारापन और जवाबदेही से पलायन

दिल्ली में, देश की राजधानी के हृदयस्थल में हुआ यह धमाका, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाले मंत्रालय की सबसे बड़ी और अक्षम्य विफलता है:

 विफलताओं की शृंखला: पुलवामा, पहलगाम और अब राजधानी में कार बम धमाका—यह दिखाता है कि गृह मंत्रालय के अधीन खुफिया और सुरक्षा तंत्र पूरी तरह पंगु हो चुका है। इन तीन-चार बड़े हमलों के बावजूद, गृहमंत्री ने अब तक इस्तीफ़े की पेशकश तक नहीं की है—यह नकारापन और नैतिक जवाबदेही का घोर अभाव है।

 प्राथमिकताएँ राजनीतिक: गृहमंत्री का ध्यान राष्ट्रीय सुरक्षा से हटकर, चुनावी प्रबंधन पर केंद्रित रहा। जिस समय दिल्ली बारूद के ढेर पर थी, वह पटना के मौर्य होटल में बैठकर 'चुनावी चाणक्य नीति' बुन रहे थे। इस आपराधिक लापरवाही का परिणाम देश के बेगुनाह नागरिकों ने अपनी जान देकर चुकाया है।

 अपराध को राजनीतिकरण: गृह मंत्रालय अपनी चूक को स्वीकार करने के बजाय, इसे तत्काल 'जघन्य आतंकी घटना' घोषित करता है और राजनीतिक लाभ के लिए ताबड़तोड़ मुस्लिम गिरफ्तारियाँ शुरू करवा देता है। यह अपनी विफलता को छिपाने और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए ईंधन डालने की कोशिश है।

III. राष्ट्रीय चेतना की पुकार

यह साफ़ है कि आज युद्धप्रिय तत्वों (आतंकवादी और धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक हितधारक) ने एक नापाक गठजोड़ बना लिया है। एक चरमपंथी समूह हमला करता है, और सत्ताधारी दल के नेता और मीडिया तुरंत 'हिन्दू-मुसलमान' का विमर्श खड़ा कर देते हैं।

राष्ट्रीय चेतना की मांग है कि हम इस द्वि-ध्रुवीय षड्यंत्र को पहचानें। मीडिया और नेताओं को अपनी साम्प्रदायिक बयानबाजियों पर रोक लगानी होगी, और गृह मंत्रालय को अपने नकारापन की जिम्मेदारी लेकर जवाबदेही तय करनी होगी। अन्यथा, देश अपनी दरारों को खुद ही गहरा करता रहेगा, और यह आग अंततः सबको जला देगी।