नेहरू का राष्ट्रवाद : भारत माता की जय का असली अर्थ और हमारे समय की उलझनें

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


नेहरू का राष्ट्रवाद : भारत माता की जय का असली अर्थ और हमारे समय की उलझनें

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को हम राष्ट्रकवि के रूप में जानते हैं—ऐसे कवि के रूप में, जिनकी रचनाओं में राष्ट्रभाव, त्याग, शौर्य और आत्मगौरव की अग्नि प्रज्वलित रहती है। लेकिन आज जब राजनैतिक विमर्श में "राष्ट्र", "राष्ट्रवाद" और "राष्ट्रवादी" जैसे शब्दों का शोर बहुत बढ़ गया है, तो दिनकर का राष्ट्रवाद हो या नेहरू का—उनका मूल अर्थ छूटता हुआ दिखाई देता है।

आज हर बात पर “वन्दे मातरम्” और “भारत माता की जय” के नारे लगाए जाते हैं, और इन नारों की आड़ में कई बार एक भ्रमित, संकुचित और राजनीतिक रूप से उपयोगी राष्ट्रवाद गढ़ने का प्रयास भी होता है। प्रश्न यह उठता है कि असली राष्ट्रवाद क्या था? और क्या आज हमने उसके मूल स्वरूप को खो दिया है?

इसी संदर्भ में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अमर कृति ‘भारत की खोज’ (The Discovery of India) नई रोशनी देती है—एक ऐसी रोशनी, जो राष्ट्रवाद के राजनीतिक आवरणों को हटाकर उसके सांस्कृतिक, मानवतावादी और गहरे आध्यात्मिक अर्थ को प्रकट करती है।

## भारत : विविधता की अनंत तहों में छिपी एक पुरातन आत्मा

नेहरू लिखते हैं— "भारत मुझे अपने असीम आकर्षण और विविधता के कारण लगातार मोहित करता रहा है। मैंने जितना भारत को देखा, उतना ही लगा कि भारत को संपूर्णता में समझ पाना लगभग असंभव है।"

भारत उनके लिए केवल धरती का खंड नहीं था; वह एक प्राचीन शिला था—जिस पर इतिहास की अनगिनत इबारतें समय-समय पर उकेरी गईं, परंतु कोई भी इबारत मिटाई नहीं गई। वे आगे लिखते हैं— "कई इबारतें एक-दूसरे पर उकेरी थीं, कई स्वप्न अंकित थे; पर पहले लिखी इबारतें मिटती नहीं थीं।"

यही भारत की आत्मा थी—विविधताओं की अंतहीन परतों के बीच बहती एक साझा अनुभूति, एक सूक्ष्म सांस्कृतिक चेतना, जो किसी संविधान या कानून में नहीं, बल्कि जनमानस में धड़कती है।

## भारत एक व्यक्ति नहीं, एक जीवित परंपरा है

नेहरू चेताते हुए कहते हैं— "किसी भी देश को मनुष्य की जाति की तरह देखना असंगत है। मैं भारत को यूँ नहीं देखता। भारत जीवन की विविधताओं से भरा है—वर्गों, जातियों, धर्मों, वर्णों और संस्कृतियों के भेदों से।"

परंतु इन बाहरी भेदों के भीतर वे एक अदृश्य सांस्कृतिक सूत्र देखते हैं—एक ऐसी ऐतिहासिक चेतना, जिसने भारत को राजनीतिक संकटों के बावजूद युगों तक संपूर्ण बनाए रखा। यही वह गहरी जड़ है, जहां से भारत अपनी एकता का रस खींचता है।

## भारत माता कौन है?—नेहरू का असली राष्ट्रवाद

राजनीति में आज "भारत माता की जय" का नारा अक्सर भावनात्मक, कभी-कभी उग्र उद्देश्य से लगाया जाता है। परंतु नेहरू इस नारे के असली अर्थ को स्पष्ट करते हुए एक अत्यंत मार्मिक प्रसंग बताते हैं।

सभा में जब लोग नारा लगाते—“भारत माता की जय!”—तो वह अचानक पूछ बैठते— “बताइए, भारत माता कौन है?”

भीड़ चकित हो जाती। कोई धरती बताता, कोई पहाड़, कोई नदियाँ। नेहरू patiently पूछते जाते— "कौन-सी धरती? गाँव की? जिले की? सारा भारत?"

अंत में, जब सबकी आँखें उत्तर खोजने में थक जातीं, तब नेहरू कहते—

“भारत माता का अर्थ केवल धरती, नदियाँ या पर्वत ही नहीं हैं।

भारत माता — यहाँ के लोग हैं।

लाखों-करोड़ों लोग, जो इस देश में रहते हैं।

उनकी जय ही—भारत माता की जय है।”

यह व्याख्या राष्ट्रवाद को जमीन से जोड़ती है—

नारों से नहीं, मनुष्यों से।

भाषणों से नहीं, जनता के दुख-सुख से।

यही वह क्षण है जब नेहरू का राष्ट्रवाद राजनीतिक रेखाओं से ऊपर उठकर मानवीय राष्ट्रवाद बन जाता है।

## भारत : विविधता में एकता का अदृश्य सूत्र

नेहरू कहते हैं—भारत का चेहरा एक *स्फिन्क्स* की तरह है—रहस्यमय, प्राचीन, कभी-कभी उपहास करती मुस्कान लिए हुए। विविधताओं की अनगिनत तहें हैं—पर फिर भी एक ऐसी एकत्व की छाप है, जिसने इस देश को युगों से एक साथ बाँधे रखा।

कितनी भी राजनीतिक उथल-पुथल क्यों न हुई, कोई आक्रमण या राजनैतिक विभाजन भारत की सांस्कृतिक एकता को मिटा नहीं पाया। यह एकता—नारे या कानून से नहीं—बल्कि साझे दुखों, साझा स्मृतियों, और सह-अस्तित्व की क्षमता से बनी है।

## गाँवों में नेहरू : राष्ट्रवाद की जड़ों तक पहुँचना

नेहरू शहरों में आधुनिक, तर्कपूर्ण राजनीति की बात करते थे—पर गाँवों में वे भारत की आत्मा को उसकी अपनी भाषा में समझाते थे।

वे किसानों को बताते कि—

• देश की समस्याएँ हर प्रांत में समान हैं,

• गरीबी और शोषण सब जगह एक जैसा है,

• और आज़ादी उन सबके लिए समान रूप से आवश्यक है।

वे किसानों से कहते— "यह महान देश आपका है। उत्तर से दक्षिण तक किसान की पीड़ा एक है। यही भारत है।"

यह राष्ट्रवाद किसी झंडे के रंग से नहीं, बल्कि जनता की पीड़ा से निर्मित था।

## नेहरू का राष्ट्रवाद—आज के राष्ट्रवाद से क्यों टकराता है?

क्योंकि नेहरू का राष्ट्रवाद—

• विस्तारवादी नहीं था,

• बहिष्कारवादी नहीं था,

• न किसी धर्म, भाषा या समुदाय के विरुद्ध था।

वह समावेशी था, मानवीय था, और सबसे बढ़कर— वैचारिक और नैतिक ऊँचाई वाला था।

आज अनेक बार राष्ट्रवाद को

• सत्ता के पक्ष में खड़ा होने,

• विरोध को राष्ट्र-विरोध बताने,

• और नारे को विचार से ऊपर रखने

के औजार के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।

यहीं नेहरू का राष्ट्रवाद असहज करता है— क्योंकि वह प्रश्न पूछता है, परिभाषाएँ स्पष्ट करता है, और व्यक्ति को राष्ट्र की जड़ों में जाकर सोचने को बाध्य करता है।

## जिम्मेदारी शिक्षित भारत की

आज के राजनीतिक वातावरण में राष्ट्रवाद की परिभाषाएँ नेताओं और सत्ता के अनुकूल बदलती रहती हैं। ऐसे समय में शिक्षित, संवेदनशील भारतीयों का कर्तव्य है कि वे नेहरू जैसे विचारकों की दृष्टि से राष्ट्रवाद को पुनः समझें।

क्योंकि राष्ट्रवाद केवल नारा नहीं है, न तो वह किसी का विशेषाधिकार है; और न वह किसी एक विचारधारा की जागीर है।

सच्चा राष्ट्रवाद वही है— जो भारत माता को भूमि नहीं, बल्कि इस देश के करोड़ों लोगों के रूप में देखे।

और उनकी जय में— सभी भारतवासियों की समान गरिमा और समान अधिकार देखें।