असुरक्षा का लाभ और चुनावी पाखंड: बांग्लादेश में जमात की नई 'समावेशी' चाल

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


असुरक्षा का लाभ और चुनावी पाखंड: बांग्लादेश में जमात की नई 'समावेशी' चाल

बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी द्वारा अचानक सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच सक्रिय होना, 'सनातनी समिति' बनाना और 'हिंदू सम्मेलन' आयोजित करना, महज एक राजनीतिक दांव नहीं है। यह घटना भू-राजनीतिक अस्थिरता, अल्पसंख्यकों की असुरक्षा और इस्लामी कट्टरवाद की कूटनीतिक चाल का एक जटिल संगम है। बांग्लादेश का भौगोलिक पर्यावरण (डेल्टा क्षेत्र की सघन आबादी और अस्थिर राजनीति) हमेशा से अल्पसंख्यकों के लिए संवेदनशील रहा है। जमात की यह नई रणनीति इसी संवेदनशील धरातल पर अल्पसंख्यकों को 'सुरक्षा का भरोसा' बेचकर, अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने का एक घिनौना प्रयास है।

I. भू-राजनीतिक मजबूरी और कूटनीतिक 'समावेश'

जमात का यह रुख उसकी आंतरिक धार्मिक विचारधारा से प्रेरित कम, बल्कि क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक मजबूरियों से प्रेरित अधिक है:

अल्पसंख्यक वोट बैंक: बांग्लादेश के चुनावों में 10% अल्पसंख्यकों का वोट निर्णायक भूमिका निभाता है। सत्ताधारी अवामी लीग के अस्थिर होने पर, जमात-बीएनपी गठबंधन इस वोट बैंक को हथियाने की कोशिश कर रहा है। यह अल्पसंख्यकों को नागरिक नहीं, केवल चुनावी संख्या के रूप में देखने की रणनीति है।

 अंतर्राष्ट्रीय वैधता की तलाश: जमात-ए-इस्लामी का अतीत युद्ध अपराधों और कट्टरता से भरा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खुद को नरम, लोकतांत्रिक और समावेशी साबित करने के लिए उसे गैर-मुस्लिमों की 'सदस्यता' दिखाना अनिवार्य है। यह समावेश केवल उपरी दिखावा (Facade) है, ताकि पश्चिमी लोकतंत्रों और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार समूहों के सामने उसकी छवि सुधर सके।

कट्टरता पर पर्दा: यह रणनीति जमात की उस मौलिक धार्मिक विचारधारा पर पर्दा डालती है, जो गैर-मुस्लिमों को नेतृत्व या नीति-निर्धारण में कोई अधिकार नहीं देती। यह समावेश सिर्फ 'सदस्य' तक सीमित है, न कि 'नेता' तक।

II. भौगोलिक-सांस्कृतिक पर्यावरण और असुरक्षा का फायदा

बांग्लादेश का डेल्टा क्षेत्र, जहाँ घनी आबादी और कमज़ोर प्रशासनिक संरचना है, ऐतिहासिक रूप से अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का शिकार रहा है। जमात इसी भौगोलिक-सांस्कृतिक असुरक्षा को भुना रही है:

 'डर' का पूंजीकरण: 5 अगस्त की घटनाओं के बाद हिंदू बस्तियों में फैली असुरक्षा और आतंक की भावना का जमात ने रणनीतिक रूप से इस्तेमाल किया। उसने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने की नैतिक जिम्मेदारी लेने के बजाय, उनके डर का पूंजीकरण किया।

 सुरक्षा के बदले वोट: अल्पसंख्यकों के लिए, जमात का समर्थन आदर्शों का समर्थन नहीं, बल्कि तात्कालिक सुरक्षा का सौदा है। उन्हें किसी अन्य पार्टी से समर्थन न मिलने पर, वे मजबूरी में जमात के 'तराजू' को 'न्याय' के रूप में देखने को विवश हैं।

अल्पसंख्यकों के प्रति उपेक्षा: जमात के नेताओं का यह कहना कि वे न्याय और निष्पक्षता के प्रतीक हैं, तब तक खोखला है जब तक वे उत्पीड़न को रोकने के लिए कोई सार्थक काम नहीं करते। यह उत्पीड़न के बाद की राजनीति (Post-Persecution Politics) है, जहाँ अपराधी ही रक्षक का चोला पहन रहा है।

III. कूटनीतिक विफलता: भारत और क्षेत्रीय स्थिरता पर प्रभाव

बांग्लादेश में जमात की यह सक्रियता भारत के लिए गंभीर कूटनीतिक चिंता का विषय है:

 भारत की सीमा पर अस्थिरता: भारत की पूर्वी सीमा पर जमात जैसी कट्टरपंथी इस्लामी पार्टी का मजबूत होना, खासकर अल्पसंख्यकों को साधने की आड़ में, सीमा पार घुसपैठ और क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ावा दे सकता है।

 कूटनीतिक दबाव का अभाव: जमात की यह 'समावेशी' चाल अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बांग्लादेश पर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए डाले जाने वाले दबाव को कम कर सकती है। यदि जमात यह दिखाने में सफल होती है कि अल्पसंख्यक उसके साथ हैं, तो मानवाधिकारों के उल्लंघन पर अंतर्राष्ट्रीय आलोचना कमजोर पड़ सकती है।

 'वोट बैंक' की राजनीति का निर्यात: बांग्लादेश में अल्पसंख्यक वोटों को साधने का यह तरीका भारत में भी साम्प्रदायिक राजनीति को नया आयाम दे सकता है, जहाँ धार्मिक समूहों को केवल चुनावी मोहरों के रूप में देखा जाए।

जमात-ए-इस्लामी का यह कदम केवल चुनावी गणित है। जब तक जमात अपने संविधान में संशोधन कर अल्पसंख्यकों को पार्टी में शीर्ष नेतृत्व और नीति-निर्धारण में समान भागीदारी नहीं देती, तब तक यह समावेश का नाटक ही रहेगा। अल्पसंख्यकों को यह समझना होगा कि उनकी समान मर्यादा, समान अधिकार और सुरक्षा का संकट केवल वोट बैंक बनकर हल नहीं होगा, बल्कि इसके लिए स्थायी राजनीतिक और कानूनी सुधार आवश्यक हैं।