सत्ता, अपराध और भ्रष्टाचार: गर्भनाल जो कभी कटती ही नहीं

लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


सत्ता, अपराध और भ्रष्टाचार: गर्भनाल जो कभी कटती ही नहीं

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह सवाल जितना पुराना है, उतना ही आज भी जलता हुआ—क्यों हर बड़ा अपराध, हर संगठित भ्रष्टाचार, हर अवैध साम्राज्य की गर्भनाल आखिरकार सत्ता के गलियारे से ही जुड़ी मिलती है? चाहे वह घोटाला हो, भूमि-अनियमितता हो, माफिया-राज हो, खनन-लूट हो, पुलिस-सुरक्षा का दुरुपयोग हो या चुनावी हिंसा—हर बार कहानी वहीं जाकर ठहर जाती है: सत्ता। यह संयोग नहीं, संरचना की प्रकृति है; सत्ता और अपराध का यह सहजीवन भारतीय राजनीति की सबसे गहरी और असुविधाजनक सच्चाई है।

सच तो यह है कि भारत में भ्रष्टाचार न तो अपवाद है और न दुर्घटना। वह व्यवस्था का अनियोजित दुष्परिणाम नहीं—बल्कि एक सुनियोजित सहयोगी संरचना है, जो दशकों से शासन की रीढ़ में छिपे कैंसर की तरह फैली हुई है। यह समझने के लिए हमें केवल यह नहीं देखना चाहिए कि अपराधी सत्ता के पास क्यों जाते हैं; हमें यह भी समझना होगा कि सत्ता अपराधियों के पास क्यों जाती है।

1. सत्ता को अपराध की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

लोकतंत्र में चुनाव जीतना सत्ता तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता है। और चुनाव जीतना आज के भारत में महज़ विचार, नीतियों, कार्यक्रमों का खेल नहीं रह गया है। चुनाव एक जटिल मशीनरी है—पैसा, भीड़, प्रचार, लॉजिस्टिक्स, और कई बार भय। यह मशीनरी जितनी महंगी है, उतनी ही अपारदर्शी।

अपराधी सत्ता के लिए तीन प्रमुख संसाधन प्रदान करते हैं:

1. काला धन — जिसका उपयोग राजनीतिक फंडिंग, खरीद-फरोख्त, प्रचार और मशीनरी को चलाने में होता है।

2. स्थानीय प्रभाव — जो चुनावी प्रक्रिया में “मैदान का नियंत्रण” सुनिश्चित करता है।

3. अनौपचारिक बल-तंत्र — जो विरोधियों को डराता है, मतदाताओं को प्रभावित करता है और सत्ता संरचना को स्थानीय स्तर पर टिकाए रखता है।

इसलिए सत्ता के लिए अपराधी “बोझ” नहीं, बल्कि “नियंत्रित उपयोगिता” होते हैं।

2. अपराधियों को सत्ता की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

अपराधी—चाहे वह भूमाफिया हो, खनन माफिया हो, शराब-कार्टेल हो, ठेकेदारी सिंडिकेट हो या आर्थिक अपराधी—उसे सबसे ज्यादा जरूरत संरक्षण (Political Patronage) की होती है।

उसके लिए पुलिस कानून नहीं, हथियार है।

प्रशासन बाधा नहीं, साधन है।

और सत्ता उसकी ढाल है।

बिना राजनीतिक संरक्षण के कोई भी बड़ा अपराध उद्योग टिक नहीं सकता। यही कारण है कि आप देखें—हर बड़े मामले की जड़ या तो किसी मंत्री के कार्यालय में मिलेगी या किसी वरिष्ठ अफसर के कमरे में, या किसी चुनावी फंडिंग सिस्टम में।

3. भ्रष्टाचार—सिस्टम की नाकामी नहीं, सिस्टम का हिस्सा

हम अक्सर कहते हैं “सिस्टम फेल है”, जबकि असलियत यह है कि सिस्टम अपने वास्तविक उद्देश्यों के अनुसार ही काम कर रहा है। फर्क बस इतना है कि वे उद्देश्य जनता के लिए नहीं, सत्ता के लिए हैं।

हमारी राजनीतिक-administrative संरचना तीन बड़े दोषों पर खड़ी है:

(क) जवाबदेही का अभाव

सत्ता में बैठे व्यक्ति के ऊपर जवाबदेही की पकड़ ढीली है। अपराध पकड़े जाने पर भी दोष राजनीतिक रूप से मैनेज किए जा सकते हैं।

(ख) पुलिस और प्रशासन की स्वतंत्रता का अभाव

भारत में पुलिस और जिला प्रशासन संविधान के नहीं, व्यावहारिक रूप से सत्ता के अधीन हैं। जो सत्ता को खुश रखेगा, वही पद, सम्मान और सुरक्षा पाएगा।

(ग) पार्टी-फंडिंग और चुनावी खर्च की अपारदर्शिता

जब तक राजनीतिक वित्तपोषण चंद बड़े कार्टेलों और कॉरपोरेट-अपराधी गठजोड़ पर निर्भर रहेगा, भ्रष्टाचार एक व्यवस्था बना रहेगा, न कि समस्या।

4. जनता की चुप्पी—सत्ता और अपराध का सबसे बड़ा हथियार

भारत में भ्रष्टाचार केवल इसलिए नहीं चलता कि नेता और अपराधी मिलकर काम करते हैं। वह इसलिए चलता है क्योंकि जनता मौन रहती है।

हम रोजाना रिश्वत को “सिस्टम की मजबूरी” कहकर स्वीकार करते हैं। अयोग्य अधिकारियों की मनमानी को “क्या फर्क पड़ता है” कहकर छोड़ देते हैं। नेताओं के अपराधियों से जुड़ाव को “ये तो राजनीति है” कहकर टाल देते हैं।

यह मौन, यह स्वीकृति, यह मनोवैज्ञानिक थकान— इसी से वह अंधेरा पैदा होता है जिसमें अपराध, सत्ता और भ्रष्टाचार साथ-साथ पनपते हैं।

जनता की चुप्पी, सत्ता और अपराध के बीच वह पुल है

जिसे तोड़े बिना परिवर्तन संभव नहीं।

5. क्या यह गर्भनाल कभी कट सकती है?

हाँ, पर इसके लिए तीन बुनियादी परिवर्तन अनिवार्य हैं:

(1) पुलिस और जांच एजेंसियों की पूर्ण स्वतंत्रता

CBI, ED, पुलिस—इनके प्रमुखों की नियुक्ति राजनीतिक इच्छा से नहीं, स्वतंत्र आयोग से हो। यही वह एक कदम है जो अपराध को सीधे सत्ता के दरवाज़े से दूर कर देगा।

(2) राजनीतिक फंडिंग की पूर्ण पारदर्शिता

जब तक चुनाव कॉरपोरेट और अपराधी फंडिंग पर आधारित रहेंगे, भ्रष्टाचार अपरिहार्य रहेगा। चुनावी चंदे का हर रुपया सार्वजनिक होना चाहिए।

(3) जनता की सक्रियता और असहयोग

आज जनता भ्रष्टाचार को जीवन का अविभाज्य हिस्सा मान चुकी है। यह मानसिकता टूटे बिना व्यवस्था नहीं बदलेगी।

लोकतंत्र में जनता ही अंतिम निर्णायक शक्ति है। यदि जनता भ्रष्टाचार को स्वीकार करेगी तो सत्ता उसे अपनाएगी। अगर जनता अस्वीकार करेगी, तो सत्ता उसकी भाषा समझने को बाध्य होगी।

## कठोर और असुविधाजनक सच

सत्ता और अपराध का गठजोड़ कोई रहस्य नहीं, यह भारतीय राजनीति का सबसे खुला सच है।

अपराध सत्ता से जुड़ता है

क्योंकि सत्ता लाभ देती है।

सत्ता अपराध से जुड़ती है

क्योंकि अपराध चुनाव जीतने में मदद करता है।

जब तक राजनीति अपराध के बिना जीतने की अपनी क्षमता में विश्वास नहीं करेगी, जब तक जनता भ्रष्टाचार को ‘सामान्य’ मानना बंद नहीं करेगी, और जब तक संस्थाएं स्वतंत्र नहीं होंगी— तब तक हर अपराध, हर घोटाला, हर सिंडिकेट बार-बार उसी गर्भनाल की ओर लौटेगा: सत्ता।

यही वह विचार है जिसे सुनने में हमें असुविधा होती है,

लेकिन जिसे स्वीकार करना— परिवर्तन की पहली सीढ़ी है।