बिहार का राजनीतिक संदेश: सत्ता के शोर से ऊपर उठता भरोसे का स्वर

 लखनऊ डेस्क प्रदीप शुक्ला 


बिहार का राजनीतिक संदेश: सत्ता के शोर से ऊपर उठता भरोसे का स्वर

भारत की राजनीति में बिहार हमेशा एक ऐसी प्रयोगशाला रहा है जहाँ सत्ता के समीकरण केवल जाति, नारा या भावनाओं पर नहीं टिकते—वहाँ जनता ‘काम’ और ‘काबिलियत’ की एक अलग, अपनी कसौटी रखती है। चुनावी प्रचार जितना भी गरजता रहे, बिहार के मतदाता कभी भी केवल भाषणों से प्रभावित नहीं होते; वे सुनते सब हैं, पर विश्वास उन्हीं पर करते हैं जिनकी नीयत और नीति दोनों की परीक्षा समय की कसौटी पर हो चुकी हो। यही कारण है कि बिहार की राजनीति में हर बार एक नया नज़रिया, एक नया संदेश सामने आता है—कभी सुधारवाद, कभी सामाजिक न्याय, कभी गठबंधन की राजनीति, तो कभी सुशासन का मॉडल।

इसी परिप्रेक्ष्य में, हालिया राजनीतिक माहौल में यह प्रश्न एक बार फिर उभरता है—क्या जनता शोर से थक चुकी है? क्या बिहार में एक बार फिर ‘विश्वसनीयता’ ही निर्णायक तत्व बन रही है? और क्या इसका केंद्र फिर से नीतीश कुमार जैसे नेता पर टिकता दिखाई देता है?

# शोर बनाम शासन—बिहार का चुनावी मनोविज्ञान

बीते कुछ वर्षों में राष्ट्रीय राजनीति में ‘नैरेटिव’ की लड़ाई तेज हुई है। राजनीतिक दल और उनके प्रचार तंत्र इस भ्रम में रहते हैं कि जो सबसे ऊँची आवाज़ में बोलेगा, वही जनता को प्रभावित कर लेगा। लेकिन बिहार इस धारणा को बार-बार चुनौती देता है। यहाँ जनता सिर्फ़ वादे नहीं सुनती, पिछले दशक का वास्तविक इतिहास भी गिनती है।

सड़कें बनीं या नहीं?

बिजली कितने घंटे आई?

पुलिस का व्यवहार कितना बदला?

शिक्षा-स्वास्थ्य की हालत में धरातल पर क्या सुधार हुआ?

और सबसे ज़रूरी—क्या सरकार स्थिर रही?

बिहार की राजनीति में ‘स्थिरता’ की भूख सबसे बड़ी है। अस्थिरता और अराजकता से थका बिहार हमेशा उस नेतृत्व की तलाश करता है जिसके पास सत्ता की इच्छा से अधिक शासन क्षमता हो।

## नीतीश कुमार का राजनीतिक समीकरण—विकल्प या आवश्यकता?

नीतीश कुमार की राजनीति पर चाहे जितनी चर्चा हो, लेकिन एक तथ्य निर्विवाद है—उन्होंने बिहार की प्रशासनिक संरचना को बदलने में निर्णायक भूमिका निभाई। विकास दर, महिला सशक्तिकरण, पंचायत प्रतिनिधित्व, सड़क-परिवहन सुधार, स्वास्थ्य ढाँचे का पुनर्गठन, शराबबंदी जैसे साहसी निर्णय—इन सबका बिहार की सामाजिक-आर्थिक संरचना पर प्रभाव पड़ा।

यह भी सच है कि उनके गठबंधन बदलने को लेकर जनता में आलोचना रही—लेकिन यहाँ बिहार का एक दिलचस्प राजनीतिक मनोविज्ञान काम करता है। जनता सत्ता के समीकरण से अधिक शासन की दिशा को देखती है। बिहार का मतदाता यह गणना भी करता है कि कौन-सा नेता बदलते राष्ट्रीय समीकरणों में राज्य को अधिक स्थिरता, संसाधन और सुरक्षा दिला सकता है।

इसीलिए नीतीश कुमार लगातार एक ‘सेंटर-ऑफ-ग्रैविटी’ बने रहते हैं—जहाँ बिहार के राजनीतिक झटकों के बावजूद जनता उनके अनुभव, प्रशासकीय क्षमता और राज्य की वास्तविक ज़रूरतों की समझ पर भरोसा करती है।

## विपक्ष का संकट—नैरेटिव तो है, विकल्प नहीं

राजनीति कभी खाली जगह पसंद नहीं करती। अगर विकल्प मज़बूत हो, तो सत्ता परिवर्तन आसान होता है। लेकिन बिहार में विपक्ष अभी भी असमंजस की स्थिति में है। एक तरफ युवा नेतृत्व है, ऊर्जा है, आक्रोश है—पर दूसरी तरफ वैसी संगठनात्मक तैयारी, प्रशासनिक अनुभव या व्यापक सामाजिक स्वीकृति का अभाव है जो सत्ता का भरोसा जीत सके।

बिहार का मतदाता केवल ग़ुस्से या नारों के सहारे सत्ता नहीं बदलता। उसे दिखना चाहिए कि नया नेतृत्व शासन कर भी पाएगा या नहीं। यही वह जगह है जहाँ विपक्ष अपनी सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रहा है।

## बिहार की जनता—व्यावहारिक, भावनात्मक नहीं

अन्य राज्यों के विपरीत, बिहार का मतदाता अत्यंत व्यावहारिक है। यहाँ जाति समीकरण भी चलते हैं, भावनाएँ भी असर डालती हैं, पर अंततः जनता अपना हित और भविष्य देखती है।

क्या नेतृत्व स्थिर है?

 क्या राज्य का कानून-व्यवस्था तंत्र सुधरेगा?

 क्या आर्थिक अवसर बढ़ेंगे?

 क्या कोई ऐसा चेहरा है जिस पर बिहार राष्ट्र-राजनीति के दबावों के बीच टिक सके?

इन्हीं सवालों से गुजरकर जनता अपना निर्णय बनाती है।

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और इस बार भी यही दिख रहा है—चाहे राजनीतिक ध्रुवीकरण कितना भी क्यों न हो, जनता की प्राथमिकता वही है: विश्वसनीय शासन।

## गठबंधन और केंद्र–राज्य समीकरण—जनता सब समझती है

बिहार की राजनीति को केंद्र से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जिस राज्य में प्रवासन सबसे बड़ा प्रश्न है, जहाँ करोड़ों लोग रोज़गार के लिए महानगरों पर निर्भर हैं—वहाँ केंद्र-राज्य सहयोग सिर्फ़ राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि आर्थिक आवश्यकता है।

इसलिए जनता यह भी देखती है कि कौन-सा नेतृत्व इस संतुलन को बेहतर तरीके से निभाता है।

 कौन केंद्र के साथ टकराव की जगह संवाद रख सकता है?

कौन बिहार को राष्ट्रीय राजनीति की खींचतान में नुकसान से बचा सकता है?

इन प्रश्नों में भी अनुभवी नेतृत्व को बढ़त मिलती है।

## बिहार का राजनीतिक संदेश साफ है

इतिहास गवाह है कि बिहार बार-बार एक संदेश देता है—राजनीति प्रचार से नहीं, भरोसे से चलती है और भरोसा उन्हीं पर होता है जिन्होंने समय-समय पर उसे निभाया हो।

इस चुनावी माहौल में भी जनता का मन उसी दिशा में झुकता दिख रहा है: प्रयोग हो सकते हैं, नारों का शोर गूंज सकता है, भावनाओं का उफान उठ सकता है—लेकिन अंततः बिहार वही चुनता है जो ‘स्थिरता’ और ‘विश्वसनीयता’ दे सके।

“बिहार ने बता दिया—राजनीति में शोर नहीं, भरोसा जीतता है; और नीतीश कुमार पर जनता का भरोसा आज भी अडिग है।”